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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग ]
कोई आया मेरे कमरे में; लेकिन मुझे इम्तिहान के सिवाय किसी को देखना न था । लेकिन कोई आ रहा है । चलता हुआ नहीं तिरता हुआ आ रहा है । पाँव हैं पर धरती को वे नहीं छूते । अधर में वे आप ही आप चलते हैं ।
"उई ।"
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इस “उई” पर मैंने ऊपर देखा था । मेरे देखने पर 'उई' हुई, कह नहीं सकता । पर गोरा रंग वह, देखते-देखते सिन्दूरिया हुआ और चेहरा
खम खा गया ।
मैंने इम्तिहान को अपने मन में आँख डाल कर कस के बाँध लेना चाहा; लेकिन वहाँ वह चेहरा उतरता जा पहुँचा था । पन्द्रहवें बरस की बात है, आज पचपनवाँ चल रहा है। चालीस बरस हो गये । हर बरस में दिन ३६५ होते हैं । पर उस दिन भीतर पहुँचा वह चेहरा, आज तक वहाँ से बाहर नहीं हो सका है । न रंग उसका बदला है, न रूप । लेकिन वह रंग-रूप क्या है, में कह नहीं सकता। लेकिन आप में से किसने वह नहीं देखा ? अपने पन्द्रहवें में नहीं, तो जरूर उसके आसपास आपने उस चेहरे को देखा है । में पूछू तो आप ही क्या बताइयेगा कि वह क्या है ! सभी अपने समय उसे देखते हैं, लेकिन क्या कोई उसको बाँध पाता है ?
'रानी' उसका नाम था । नाम दूसरा हो क्या सकता है । पड़ोस में अपने से लगा हुआ उसका घर था । इम्तिहान हुआ और में पास हो गया। दो महीने के लिए इधर-उधर पहाड़ों की सैर करता फिरा । अब कालेज खुलेंगे और “फर्स्ट इयर" में दाखिल होना होगा । सोच लिया कि उस पड़ोस में नहीं रहूँगा । भला कैसे रहा जाएगा ? दूर काले पानी के किसी कालेज में चला जाऊँगा । इरादा पक्का करके घर लौटा। जून का महीना सरकने को था । उस साल बादल जल्दी घुमड़ना शुरू हो गए थे। कड़े ताप के बाद ऊदे काले बादल रह-रहकर ऊपर आसमान में