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१६८ जनेन्द्र की कहानियाँ [सातवां भाग] - तभी खुले तौर पर काँपते कण्ठ से माँ ने सुषमा का हाथ पकड़कर उठाते हुए कहा, "वेटा, लाज शरम अब के घड़ी की है । तेरा भाग्य अब फूटा ही रखा है। आखिरी घड़ी मिल-बोल तो ले।" फिर भी जब सुषमा बिलकुल नहीं उठ सकी, तो माँ ने बाँह पकड़कर उसे उठाया
और दिनकर के पास ला बिठाया। सुषमा वहाँ पाकर सिमटती हुई ही बैठ गई। - माँ ने दिनकर से कहा, "बेटा, इस नन्ही को तो समझा। यह तो घर में भी किसी से नहीं बोलती है।"
दिनकर लौटना अब भी नहीं चाहता है । वह कर्रा ही बना है। पर मन जाने उसका कैसा कैसा होने लगा।
उसने हँसकर कहा, "पगली है।" माँ ने कहा, "बेटा, इस पर तो तुझे तरस करना था।"
यह सुनकर पिता बेहद अवश, कातर हो पड़े। बोले, 'कुछ बात नहीं," "कुछ बात नहीं," और अवगुण्ठनावृत सुषमा के सिर पर अपने बड़े चौड़े दायें हाथ को ला रखा। उसे सिर पर फेरते हुए कहा, "बेटा, हमारा बीरन बहादुर है, चोर-डाकू नहीं है । देखो, कितने-कितने उसकी जय बोलते हैं । वह स्वर्ग को जा रहा है । ऐसे लाल क्या सबके होते हैं ? धीरज रख, मेरे बेटे, मेरे बटुए...।" यह कहते-कहते पिता के आंसू तारतार झरने लगे। उस समय किसी के भी आँसू रोके न रुके। पर, अवगुण्ठन के भीतर की उन अाँखों में क्या हुआ, यह किसी को पता न चल सका। - थोड़ी देर में दिनकर ने पिताजी को अलग ले जाकर कहा, "पिताजी, मेरी एक साध है । फांसी के दिन से पहले-पहले सुषमा और कुलवन्त का विवाह कर दीजिए।". .
पिता ने कहा, “क्या कहते हो बेटा ? सुषमा को तुम नहीं जानते।"
दिनकर ने कहा, "पिताजी, मुझे कुछ भी और इच्छा नहीं है। यह नहीं करेंगे, तो मेरी गति नहीं होगी।"