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क्या हो ?
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अगले रोज जब माता-पिता और उसके भाई उससे मिलने पाए, तब लम्बा घूघट काढ़े हुए, सिमटी-सिमटाई उसकी पत्नी भी आई। सब लोग बातें करने लगे और सुषमा घूघट में बन्द, पीछे, एक ओर चुपचाप बैठी रही।
ऐसे समय जब कि बिदा अन्तिम होती है, तब कहने को पास कोई बात नहीं मालूम होती। जीवन के सब व्यापार मानो उस महा घटना के सामने प्रति तुच्छ हो पड़ते हैं। वही बात यहाँ थी। सबके मन उस समय ऐसे पककर भरे हुए थे कि मुह किसी का खुलता ही न था। उस नीरवता के त्रास को तोड़ते हुए अन्त में दिनकर ने ही अपनी पोर से बढ़कर पूछा, "हिरिया, अब कैसी है, बाबूजी ?...और क्यों कुलवन्त, कैसे हो ?"
पिता ने कहा, "उसने पंखा दिया है।" और कुलवन्त ने कुछ गुन-गुन किया।
बात फिर खतम होती-सी मालूम हुई । सब के मन में इतना कुछ था कि किस ओर से उसमें से किस तार को छेड़कर मन के व्यथा-पिण्ड को छिलने दें, यह किसी को सूझ न पड़ता था। ___ इतने में दिनकर की मां ने सुषमा के पास जाकर भर्राए कण्ठ से कहा, "बेटी, अब बोल तो ले । अब काहे की लाज !"
सुषमा वहीं जमी रह गई । कुछ भी बोलने-बतलाने पति के पास न जा सकी।
उस समय सबके कण्ठ भर पाए और सब सयत्न हुए कि उठते हुए . आँसू वे भीतर ही पी जाय, कहीं वे ढरके नहीं।
उस समय पिता मुख ऊपर उठाकर निरुद्देश्य भाव से बोले, "पोहा 'तीन बज गए !" और रूमाल निकालकर बे-मालूम तौर पर आंख और नाक का पानी उन्होंने पोंछ लिया और ऊपर की ही ओर शून्य मुद्रा में ताकते रह गए।