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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग ]
क्या पति का यह अर्थ था कि मैं पत्नी के प्रति एक दिन के लिए भी प्राप्य न बनूँ और बहुत जल्दी अपनी मौत को खोज लेकर उस नवोढा के लिए चिरप्राप्य और चिर- शोध्य बन जाऊँ ? किन्तु विवाह ही तो है कि पत्नी के लिए सदा में ही आराध्य रहूँगा । और जब सदेह 'मुझ' को सेवा के लिए वह नहीं पा सकेगी, तब विगत - देह रूप में ही उसे अपनी पूजा मुझे भेजती रहनी होगी ।
जिसने मन की भक्ति और स्नेह को इस प्रकार एकनिष्ठा के साथ अमुक एक ध्येय की ओर उन्मुख बन उमड़ते रहने और भरते रहने का उपाय प्रस्तुत कर दिया, वह मनुष्य की अनुपम कृति हैं — विवाह | अब यहाँ इस पार आकर में उस संस्था का महत्त्व देखता हूँ । वह संस्था चाहे समाज की व्यावहारिक आवश्यकता में से ही निकली हो; पर वह वर्धिष्णु भाव से मनुष्य की परोन्मुख वृत्तियों को अपने में धारण करती रही है ।... किन्तु विवाह संस्था का परिणाम अत्याचार क्यों हो ?
कुलवन्त पच्चीस वर्ष का तो होगा। वह सुषमा की तरफ़ से किनारा करता भी नहीं दीखता । इस ओर वह श्रनुग्रहार्थी भी हो, तो मुझे विस्मय न होगा । आखिर तो जवान है। उसे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए | ऊपरी सँकोच ? -- सो मैं समझा-बुझा दूँगा ।
लेकिन सुषमा को राह कैसे लाना होगा ? वह क्या मेरी बात भी सुनेगी ! सुने भी, तो क्या तनिक भी अपने मन पर उसे ठहरने देगी ? नहीं-नहीं, वह नहीं मानेगी। वह शिक्षिता नहीं है । बेचारी सतियों की कहानियों को पकड़े बैठी है । वह किस तरह मान सकेगी ?
पर मैं फाँसी के प्रति कितना ही निस्सङ्ग हूँ, मेरी समाप्ति का अर्थ सदाके लिए सुषमा का सुहाग पुछ जाना यदि होगा, तो उस मौत में मुझे कलक रहेगी ही ।... नहीं, वह नहीं विधवा होगी । में मरूँगा; किन्तु मैं उसे विधवा नहीं होने दूँगा ।...