________________
क्या हो ?
१.६५
अनजान कुमार के साथ कुछ ही क्षणों में, जिस महा-प्रद्भुत मन्त्र के उच्चार द्वारा आपस में ऐसे हो जाते हैं कि वे किसी भी ओर से दो शेष न रहें, प्रभिन्न जीवन हो जायें, उसको विवाह कहते हैं । उस विवाह के अर्थ हैं – मरेंगे, तो दोनों मरेंगें; जियेंगे, तो दोनों जियेंगे; सुख-दुःख, जीवन-मरण, हानि-लाभ, यश-अपयश, सब में दोनों एक-से सहभागी होंगे । ... विवाह हुआ और वह कठिनाई से पन्द्रह वर्ष की कन्या मुझ में • मिला दी गई ।... अब में फाँसी की कोठरी में हूँ, वह घर में है ।...
मनुष्य ने विवाह सिरजा । माना, मनुष्य और मनुष्य के बीच के सम्बन्ध की दृष्टि से विवाह से सुन्दरतर युग-युग में मनुष्य ने दूसरी कृति नहीं प्रस्तुत की; किन्तु विवाह का रक्षण जहाँ न हो सके, वहाँ ? जो न कर सके, उसके लिए ? उस स्थल पर और व्यक्ति के लिए भी क्या विवाह टिकेगा ? क्या ऐसे समय अरक्षित को रक्षा और वञ्चित को हक पाने का कोई यत्न नहीं हो सकेगा ?
मैं मरता हूँ; किन्तु क्या उस प्रबोधा, किशोरिका का पत्नीत्व निष्ठुर पतित्व की प्रतीक्षा करते हुए चिरकाल तक, अस्तकाल तक, परकाल तक बैठा रहेगा ? मैं अपने कामों के लिए मरा, यह मेरे काम का पुरस्कार है, या चाहे उसका दण्ड है । किन्तु, जिसको अपने जीवन के साथ तो आ मिलने दिया; लेकिन जो मेरी उन पुरस्करणीय अथवा usate करतूतों के लिए तनिक उत्तरदाता नहीं है, वह बेचारी भी क्या उस श्राँच से झुलसे ? मैं एक शब्द में मान लू कि विवाह की रक्षा मुझ से नहीं हुई । विवाह के नेम का निभाव मैंने नहीं किया। मैं अपने को उससे तुड़ाकर अब यहाँ मृत्यु के तट पर फाँसी के मल्लाहों की प्रतीक्षा करता बैठा हूँ । तब क्या वह विवाह उस नवीना को वंचिता, उस फेरों की गुनाहगार को अरक्षणीया बना रखने के लिए ही टिका रहेगा ?
लेकिन विवाह भी क्या चीज़ है ? विवाह ने मुझे पति बना दिया ।