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१६२ . जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग] देखकर वितृष्णा ही होती है । या हाँ, उन्मत्त, अन्धा आकर्षण हो सकता है। किन्तु मुझे आकर्षण नहीं है। मुझे वह समूची वस्तु कुछ मैली मालूम होती है, अपावन, अशुचि, असुन्दर । मैं उस ओर देखना नहीं चाहता हूँ।...तो क्या जी फिर रोने को आता है ? नहीं, मेरे भीतर अभी तक इस फाँसी की बात को लेकर तनिक भी रोना नहीं पा सका है। मैंने कुछ किया। मैं जानता हूँ, मैंने वह किया। वह करते समय भी मैं जानता था कि उसके अन्त में यही चीज हो सकती है, फाँसी !, जिस को मैं अब भी ठीक नहीं जानता कि क्या है । इस फाँसी के परिणाम के व्यापक भाव के इतने भाग को मैं जानता था कि जिन से मैं बोलता हूँ, मिलता हूँ, जिन से प्रेम लेता और जिन को प्रेम देता हूँ, जिनके भीतर अपने को फैला कर और जिन्हें अपने भीतर धारण करके मेरा जीवन सम्भव बना चलता है; वे सब मेरे लिए न रहेंगे, मैं उनके लिए न रहूंगा।...मैं उनके लिए न रहूँगा ! तब क्या कोई होगा जिसके लिए रहूँगा? नहीं-नहीं, बिलकुल तिरोहित, अशेष, असत् हो जाऊँगा। विश्व के चेतना-पिण्ड में कोई मेरे व्यक्तित्व के अस्तित्व का भास या विधाता के बहीखाते में कोई हिसाब शेष रहे भी, तो उस शेष रहने को किस तरह की गिनती में रक्खा जा सकता है ? इस सर्वतोभावेन तिरोभाव होने की सम्भावना को मैंने तब भी सामने रक्खा । अब भी सामने वही है। इसलिए घबराहट मुझ में भीतर से कोई नहीं होती।....मात्र इतना ही है कि फाँसी स्त्रीलिंग पाकर भी सुस्वरूपा नहीं है । प्राकार-प्रकार में असुन्दर वस्तु है। इससे उस ओर देखना कुछ प्रीति-वर्धक नहीं होता।
किन्तु अब तक, जीवन के इस निश्चित छोर पर प्रा लगने तक, मैंने अपने ही को माना है। जो समझा है, किया है। उसके करने से भी नहीं बचा हूँ, उसके परिणाम से भी नहीं बचा हूँ। मुझे अपने में खेद नहीं है; पर अब आकर मुझे यह बोध हो रहा है कि क्या मैं बिलकुल अपना ही था ? जिन्होंने मेरे साथ आशाएँ और प्रत्याशाएँ बांधी, भविष्य बांधा, प्रेम बांधा, अपना जीवन ही बाँध लिया; जो मेरी ओस को लेकर जीते