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क्या हो ?
जब दिनकर को फांसी की सजा सुनाई गई, तब उसने जज की ओर मुस्करा कर कहा, "थेंक यू ।" लेकिन शाम को अपनी अकेली कोठरी में सोचने लगा कि इसमें हँसकर 'थैंक यू' कहने की बात नहीं है । कोई यदि यह निर्णय दे देता है कि कुछ दिनों के बाद मुझे जीना नहीं होगा, तब क्या उस निर्णायक का उस निर्णय के लिए कृतज्ञ होना चाहिए ?... क्या मुझमें कृतज्ञता है ? क्या मुझमें खुशी है ? तब मैंने क्यों यह झूठा श्राचरण किया कि मैंने जज को धन्यवाद दिया ? धन्यवाद मुझ में न था ।... लेकिन क्या यह है कि रोऊँ नहीं, इसलिए मैं हँसा? मैं समझता हूँ, यह भी ठीक बात नहीं है । रोने की भी कोई जरूरत इस समय मेरे भीतर नहीं है । यह ठीक है कि निर्णय में मात्र इतना ही नहीं है कि अमुक तिथि तक मैं जीऊँ । जीवन उस तिथि तक चुक जाय, और फिर मौत सरकती हुई आ जाय, व्यवस्था इतनी ही नहीं है । व्यवस्था यह भी है कि मैं मारा जाऊँ, गले में फन्दा अटकाकर मेरी जान मुझ में से खींच कर तोड़ ली जाय । यह बात अगर मैं कहता हूँ सुख की है, तो झूठ कहता हूँ । यह सुख की बात हो सकती थी कि अमुक क्षण के बाद मैं पाऊँ — मैं नहीं जी रहा हूँ। लेकिन जीते-जी मार दिया जाऊँ, ( और फाँसी और क्या है ? और हत्या भी और क्या है ? ) यह सुखकर बात नहीं है । इसको तो सामने
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