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________________ 'क्या हो ? १६३ थे और जिनकी आकांक्षाएँ मेरी ओर ही आँख बिछाए बैठी रहती थीं, उनका भी तो मुझ में कुछ था। उन लोगों को मैंने अपना क्या दिया ? जिसे हक समझा, आदर्श समझा, उसी का सब-का-सब क्या मैं न हो रहा ? किन्तु इन लोगों को क्या मेरा कोई भाग प्राप्य नहीं था ? यदि मैंने अपने को उनके प्रति विसर्जित नहीं किया और जीवन के धागे को बीच से ही काट कर झट उसके परले किनारे पान बैठा, तो क्या मैंने अपना कर्म पूरा किया ? क्या उचित किया ? __माना, देश है । माना, आदर्श है । माना, भारत-माता भी है । और मान लिया, गुलामी की बेड़ियों को तोड़ना भी कुछ है। लेकिन अपनी सगी माँ अपनी क्या कुछ नहीं है ? बाप कुछ नहीं है ? भाई कुछ नहीं है ? और वह वेचारी अबोधा कच्ची हरियाली-सी पत्नी कुछ नहीं है ? मैंने कहा और मैं कहता हूँ, मुझे खेद नहीं है । पछतावें जो पछतावें। में अकम्प हूँ। लौटना में नहीं चाहता। लौटने-जैसी चीज साथ लेकर में नहीं चलता। फांसी आती है तो आती रहे। मुझे उस तरफ से बेफिकरी है। मुझे क्षण के लिए भी मांगना नहीं है कि-'परी तू ठहर । मुझे इतना यह और कर लेने दे।' मेरे मन में तनिक भी जिज्ञास। नहीं है कि 'परी क्यों, तू लौट नहीं सकती ?' मैं अपने भाग्य से कोई सवाल-जवाब नहीं करना चाहता। मैं चुनौती देकर चलता हूँ। मैं कहता हूँ, मैं यह हूँ। अब भविष्य अपना जाने कि उसे क्या होना है। भविष्य का जो भी विधाता हो, मुझे उसके समक्ष कोई प्रार्थना नहीं है। मैं बस अपने वर्तमान का विधाता हुआ चलता हूँ। आगे से मुझे मतलब नहीं है। आगे फाँसी है कि स्वर्ग, जानने का मेरा कोई सरोकार नहीं है। इसलिए मैं कहता हूँ कि फाँसी की कोठरी में हैं, इसमें कोई गलत बात मैं नहीं पाता । मैं इतना जानता हूँ कि, जो समझता हूँ, करता हूँ। जो पुरस्कार प्राता है, वह आ जाय । जो दण्ड आता है, वह पा जाय । मुझे यह भी जानने से क्या वास्ता कि यह दण्ड है अथवा पुरस्कार ? कि विधना रुष्ट है कि तुष्ट ?
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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