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आलोचना
कुछ ऐसा फक्कड़पन और अल्हड़पन था कि मुझे बिलकुल नहीं भा रहा था। जैसे उनकी रुचि योग्य न मैं हूँ, न कोई और है। जैसे उन्होंने अभी से सब देखा और सब हेय है। जैसे वे स्वयं स्त्री हैं, यह विश्व पर कृपा है। और वे इस कृपा का दान भी कर सकती हैं, पर जगत् में पात्रता नहीं है। पर देखो, किसी से उनका लगाव नहीं, किसी से वास्ता नहीं, किसी की तरफ़ ज़िम्मेदारी नहीं, कोई कर्त्तव्य नहीं ! जैसे छूटी...., जंगली गायें हों। ___ मैंने चाहा, मैं उनकी ओर से मुह फेर लू । उनको देख कर जी का चैन उड़ता था। मैंने देखा, दूसरी तरफ खोमचे वालों की दुकानें हैं। उनके फैले माल की तरफ देखना अच्छा लगता है। वहाँ कुछ है, जो सुस्वादु है, और मानों हमारा स्वागत करता है। लेकिन मेरा मन, हठकर, उधर-ही-उधर जाता था । हठात् मैंने मुड़ कर देखा-वे निरुद्देश्य, निर्व्याज, निश्शंक, निर्लज्ज उसी भाँति घूम रही थीं। वे कुछ दूर पाती थीं, फिर लौट जाती थीं, फिर पाती थीं, फिर लौट जाती थीं।
...क्या ये यों ही हैं ? क्या इन्हें कुछ काम नहीं है ? क्या इन्हें घर प्राप्त नहीं है, कि कुछ झाड़-बुहारी करें, चौका-बासन करें? क्या इन्हें कोई और प्राप्त नहीं है जिसकी सेवा-टहल करें, परिचर्या करें ? क्या सेवा-कर्म इन्हें दुर्लभ है ? क्या रोटी से ये बेफिक्र हैं ? इस प्रकार देखना
और घूमना-क्या यही इन्हें शेष है ?...अरे, ये क्यों नहीं अपने घर में हैं ? क्यों इस तरह यह निष्प्रयोजन बनी हैं ?... . ___तभी स्थानीय पब्लिक-कालेज के एक प्रोफेसर बढ़ते हुए आये। उन्होंने कहा, "वाह पण्डित जी ! आप भी पधारे हैं ? आइए, आइए, अन्दर बैठिए।"
हमने कहा, "हम बाहर ही ठीक हैं।" और बातचीत होने लगी। प्रसंग-प्रसंग में उन्होंने पूछा, "अापने ताजी खबर सुनी है ?" हमने बताया, "हमने नहीं सुनी। कोई भी खबर जब तक ताजी