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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवा भाग] • उन्होंने कहा, "नहीं-नहीं, पण्डितजी।"
और वे फिर मुझसे चाहने लगे कि मैं कहूँ सोशलिज्म मिथ्या है; नहीं तो मानू सोशलिज्म मोक्ष है।
__ मैंने कहा, "देखो भाइयो, बहुत से 'इज्म' हैं । या तो मनुष्य इज्मों के ऊपर है, या नीचे है। नीचे है, तो वह गुलाम है। और गुलामी से आदमी को छूटना चाहिए । ऊपर है तो यह अर्थ कि इज्म एक वाद है, अपेक्षा-कथन है, और मनुष्य को उस अपेक्षा को न भूलना चाहिए, जो उस वाद में प्रतिफलित है।"
उन्होंने जिद की कि मझे प्रश्न से बचना नहीं चाहिए, और मुझे बताना होगा कि मैं सोशलिस्ट हूँ या नहीं हूँ।
मेंने कहा कि मैं आदमी अपने ढंग का रहना चाहता हूँ। इसलिए सोशलिस्ट भी अपने ही ढंग का होऊँगा। किताब में जो ढंग नियुक्त है, उस साँचे का सोशलिस्ट शायद मैं न होऊँ। . वे जवान लोग मुझ से एकदम उलझना चाहते हैं। और दलील में मुझ में कट्टरता नहीं है इससे, मुझे जीत का भरोसा नहीं रहता। मैं इसलिए दलील से बचता हूँ। मैंने इधर-उधर देखा कि कहीं कुछ खानेपीने का साधन है या नहीं। इस तरह मुझे उखड़ा हुआ-सा देख जवान लोग मुझे धीरे-धीरे अकेला छोड़ गये। ____ तभी मैंने देखा कान्फरेन्स के हाल की बाईं तरफ से वही दो लड़कियाँ चली जा रही हैं। चाल अनमनी है, और चेहरे पर वही उपेक्षा का भाव है। मानों वे किसी निर्जन स्थान में घूम रही हैं। आस-पास तरहतरह के आदमी हैं, तरह-तरह के रंग हैं-मानों इससे उन्हें कुछ वास्ता न था, इसका कुछ बोध न था। ___ मेरे मन में वही वितृष्णा फैलने लगी। फोकापन-सा छा आया और वैसे ही अप्रीतिकर विचार उठने लगे।
पैरों में उनके चप्पल थी, सिर उघड़ा-सा था, धोती सादी और भारी थी, मह पर उदासी और अँधेरा । और सारी आकृति और चाल में