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आलोचना
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मैंने खुली साँस ली । हवा में वक्ताओं की वाणी-सा जोश नहीं था, और यह प्रीतिवर्धक जान पड़ा ।
इतने ही में दो कालेज के-से लड़कों ने मेरे पास आकर विनय-पूर्वक प्रणाम किया । उन्होंने कहा, "पण्डितजी, आइए, चलिए अन्दर बैठिए ।" मैंने कहा, "मैं अभी अन्दर से आया हूँ, कहो, तुम लोग प्रसन्न तो हो ?"
इतने में एक तीसरा व्यक्ति एक कुरसी उठा लाया, कहा, "पण्डित - जी, इसपर बैठिए ।"
मैंने कहा, "भाई, कष्ट न करो, हम ठीक हैं ।"
युवकों ने पूछा, "पण्डित जी, आप की क्या सम्मति है ? सोशलिज्म के बिना कुछ हो सकता है ?"
हमने कहा, "भाई, हम पहले समझते थे, ईश्वर के बिना कुछ नहीं हो सकता । अब यह बात ग़लत होती जाती है । जो खूब करने - धरनेवाले हैं, वे ईश्वर-पूर्वक तो कुछ नहीं करते हैं । इसलिये अब हम क्या कहें कि किस के बिना क्या नहीं हो सकता ।"
युवकों ने बताया, “जनसंख्या का पिचानबे प्रतिशत अंश क्या है ? निर्धन, मजदूर, कृषक । मनुष्य जाति का भला, यानी इनका भला । जिसमें इनका भला नहीं, उस में अवश्य मनुष्य जाति का अकल्याण है । इसलिए अधिकार किस का हो ? शासन किस का हो ? सरकार किस की हो ? बुद्धि-जीवियों की नहीं, धनाढ्यों की नहीं । काम करनेवालों के हाथ में पैसा हो, उन्हीं के हाथ में ज़मीन, उन्हीं के हाथ में कानून बनाना
उन्हीं के हाथ में क़ानून पालन करना, — यह सोशलिज्म चाहता है । कोई भी नेकनीयत श्रादमी यह चाहने से कैसे बच सकता है, क्यों पण्डित जो ?"
हमने कहा, “ठीक है, बेटा । हम यहाँ जरा हवा के लिए आ गये हैं । हमें किसी बात की आवश्यकता नहीं है । तुम लोग हमारे पीछे व्याख्यान सुनने में क्षति डालना आवश्यक न समझना ।"