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१५० जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग] भी जगह होती हैं, जहाँ उगने को कुछ उग न सके। बीरान ऐसी की भयानक ! देखो तो चारों-ओर रेत । और रेत के दूह दूर से भूत-से दीखते थे। मालूम हुआ ठाकुर-साहब की तरफ से रथ पाया है, जिसमें मेरे लिए बहुत आरामदेह बन्दोबस्त कर दिया गया है । रथ-वाले ने उसके बाद दो-एक चिलम की और अपने को तैयार किया और क्रमशः बढ़ती हुई धौली चाँदनी में रथ आगे बढ़ा। रात गहराती जाती थी, पर मुझे नींद न थी। रथ में पड़ा-पड़ा मैं चाँद की तरफ देखा किया, जो मेरे साथ-साथ चल रहा था। रथ-वाला कहता, “सो जाओ, बाबू !" और मैं उसकी निगाह के नीचे सोया सा हो जाता। पर, सरदी मीठी थी और चाँदनी भीनी थी, और आँखों में नींद सहज बसती न थी।"
चलते-चलते, चलते-चलते ऐसे कब नींद आ गई, पता न चला। पता तब चला जब रथ रुक चुका था और ठाकुर-साहब खुद मेरे स्वागत के लिए गढ़ी के दरवाजे पर मौजूद थे। जैसे-तैसे स्वागत को संक्षिप्त करके में कोई साढ़े तीन बजे अपनी शैया पर आया और सोचताविचारता सिर ढक कर सो गया। कुछ देर बाद एकाएक जगना पड़ा, ऊँघानींदी में पूछा, "कौन ?"
धीमी आवाज़ आई-"सो गए ?"
आँख मलकर देखा, "सिरहा कोई खड़ा है। पर, दीख न सका कौन है । क्योंकि अँधेरा था।"
फिर मूछा, 'कौन ?" "मैं लीला।" मेरी कुछ समझ न पाया । झटके से बोला, "क्या है ?" "मैं लीला हूँ, प्रसाद ! लीला मिश्र।" विश्वास न हुआ । कहा, "कौन तुम ?"
और मै घबराया-सा उठा। मेरे कन्धे पर दबाव देकर वह बोली, "उठो नहीं, लेटे रहो। तुम्हें