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प्रेम की बात
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महानुभाव चले गए और मैं सोचता रह गया कि क्यों श्रीमती
मिश्र यहाँ ठहरेंगी ? मैंने अपने घर को याद किया, अपनी हैसियत को याद किया और अपने अतीत को याद किया । इसी सिलसिले में हठात् एक ठाकुर मित्र को भी याद कर लिया, जिनका बरसों का श्राग्रह था कि कभी उनके यहाँ प्राऊँ । याद आया कि रेल से तीस मील दूर उनकी जगह है, जहाँ ऊँट से जाना होता है । यही बहुत ठीक रहेगा । निश्चय हुआ कि पाँच रोज़ की छुट्टी ली जाय और ठाकुर साहब को कृतार्थ किया जाय । चुनांचे ठाकुर साहब को तार दे दिया गया और जुगराफ़िए की किताब में से रास्ता तलाश किया। घर में कहा"देखना, मुझे ज़रूरी सरकारी काम से जाना पड़ रहा है । कोई पीछे आए तो कह देना गए हैं ।" श्रीमती ने पूछा, "कहाँ जा रहे हो ?"
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कहा, "अब तुम्हें क्या बताऊँ, कहाँ जा रहा हूँ ? मुलाजमत है यह या प्राफ़त है ।"
बोली, "यह कैसे हो रहे हो ? पीछे कोई बात हो जाय तो बताते न जानो । कहाँ खबर करनी होगी । और कब तक आओगे ?"
कहा, “आऊँगा पाँच दिन में और काम निबटा कर सोचता हूँ, वह ठाकुर साहब हैं न, लालगढ़ी के, कब से कह रहे हैं । दो रोज़ वहीं हो श्राऊँ ।"
श्रीमती ने सुन लिया और अपने काम में हो रहीं और मैं लालगढ़ी के लिए रवाना हो गया । श्राप कहेंगे कि यह क्या ? क्या मेरा घर ठहरना नहीं हो सकता था ? क्यों नहीं हो सकता था ? पर नहीं, वहीं किसी क्यों को अवकाश न था । सो बेबस और अपने बावजूद घूमता - बामता मैं उस स्टेशन श्रा लगा जहाँ उतरना था । उस समय रात के दस बजे थे । सरदी के दिन थे । चन्द्रमा हाल ही निकला था । छोटा-सा स्टेशन | लालटेन लिए हुए आखिर एक आदमी ने मुझे खोज निकाला। स्टेशन से बाहर आकर में विस्मित हुआ अपने पर और उस जगह पर । ऐसी