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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग ]
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यह साँसत प्राये साल सिर पर रक्खी है । भगवान्, तूने औरत को क्यों जनमाया ? आये दिन यही धन्धे, तिस पर क्लेश ! मुझ से नहीं होता, नहीं होता । सिर तो फटा जाता है, कैसे करूँ ? ...
उठ-कर कमरे में लाकर खाट पर बैठ गई । उसका जी ठीक नहीं रहता । व्याह के बाद से ही कुछ गड़बड़ हाल है। तबियत अनमनाई, मिचलाई रहती है । सिर में दर्द तो हर घड़ी बना रहता है । हरारत भी लग प्राया करती है। आराम चाहती है, पर आराम कहाँ मिलता है ? और मिलता है तो उससे भी उकताहट जल्दी आ जाती है । एक दिन कटता है, दूसरा दिन आ जाता है। उसकी समझ में नहीं श्राता, ये दिन पर-दिन क्यों आते हैं ? कहाँ से आते हैं ? सब कुछ एक साथ खतम क्यों नहीं हो जाता ? जीना एक दिन के लिए हो और खूब खुशी से फुलझड़ी की तरह उस दिन जी लिया जाय, फिर अगले दिन के लिए कुछ रहे ही नहीं, ऐसा हो तो क्या हर्ज है ? देखो, पड़ोस में उनके घर कैसी हँसी रहती है । बच्चे कैसे फूल से खिले रहते हैं । एक हम हैं कि . ऊँह... हैं तो हैं ! - एँ वक्त क्या हो गया ? वह आते न हों ?
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सोचने लगी कि वह उठे, जाकर गरम पानी ठीक कर दे, कुछ नाश्ते का बन्दोबस्त कर दे, क्योंकि वह आते ही होंगे ।
त्रिवेनी के पति मनसाराम स्कूल में मुदर्रिस हैं। चौबीस रुपए माहवार पाते हैं । ब्याह को पाँच से कुछ ही ऊपर साल हुए हैं। बड़ा बच्चा रिपुदमन है ही । एक लड़की हुई थी, जो एक बरस के ऊपर की होकर चेचक में जाती रही। दूसरा बच्चा मरा पैदा हुआ, आखिरी गर्भ गिर गया। इस तरह तीन प्रारणी हैं। सो, चौबीस में क तरह से गृहस्थी मजे में निभ जाती है। दो-चार रुपये बचा कर वे दोनों जने प्रायन्दा के लिए सैंत कर जोड़ते भी जाते हैं । इस भाँति गृहस्थी की गाड़ी चल ही रही है।
चल तो रही है, पर चू ँ-चू ँ भी करती जाती है। जिया जा रहा है,