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________________ त्रिबेनी १३५ कुछ गजक-रेवड़ी हाथ में लिए त्रिबेनी जो बाहर आई तो देखती है, आंगन में चिड़िया का पूत भी नहीं है। बोली, “पाजी कहीं का ।" और एकदम चलती हुई दरवाजे से बाहर आ गई। पुकार कर बोली, "प्रो, कहाँ गया रे ? ले, यह ले।" . ____इतने में देखती क्या है कि वह सामने कुएँ में पैर लटकाए जो बैठा है, वह है रिपुदमन । लपकी और बाँह पकड़ कर झटके से उसे उठाकर घसीटती हुई ले चली । घिसटते हुए बालक बोला, 'नहीं खाऊँगा। कुछ नहीं खाऊँगा । कभी नहीं खाऊँगा।" अब बालक ने अपना बोझ ही छोड़ दिया, और वह धरती पर गिरा जाने लगा। उसको सीधा थामे रखने में त्रिबेनी की कलाई दुःख चली। तब उसने बालक की बाँह छोड़ कर कहा, "नहीं खायगा ! तू नहीं खायगा ?" और यह कह कर उसे थप्पड़ों, लातों से मारने लगी। बालक रोया बिलकुल नहीं । उलटे उद्दण्डता से चिल्लाता रहा"मार ले आज । तू खूब मार ले। जी भर कर मार ले । मैं नहीं, नहीं, नहीं खाऊँगा।" "मत खा, मत खा, चंडाल !" कह कर हाथ की गजक और रेवड़ी को जोर से बच्चे के सिर पर पटक कर त्रिबेनी झींकती हुई घर में चली गई। अन्दर चूल्हे के पास गई । पाँच मन्दी हो गई थी। उसने धुआँ देकर जलती हुई लकड़ी को जोर से चूल्हे के भीतर किया। पास से उठा कर दूसरी लकड़ी को भी उसमें ठूसा । फिर जोर-जोर से फूक मारने लगी और बीच-बीच में झल्लाती जाती थी। प्राग आखिर बल आई। उसने चूल्हे की बटलोई को ठीक किया। फिर वहीं चूल्हे के बराबर माथे को हथेली में लेकर बैठ रही। ...अब तक नहीं पाये ! छुट्टी नहीं हुई ? ऊँह, होगा कुछ ।...सच, अब मुझ से नहीं होता काम । वह जानें, उनका काम जाने अब । फिर:::
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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