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व्यर्थ प्रयत्न
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और यह उसका प्रश्न, चाहे जितना सोचे, जितना पढ़े, और भी तीव्रता से उसके भीतर ऐसा प्रावर्त देता हुआ घुमड़ता रहता है, जैसे व्यथा की घूँट । उत्तर कहाँ है, कहाँ है ? कहीं से भी तो वह उसके पास चलके नहीं आता है । जो है प्रश्न है । 'यह' क्या है ? - नहीं मालूम । 'वह' क्या है ? - नहीं मालूम | पर इन सारी किताबों की मदद से और अपने मन की मदद से इतना अवश्य मालूम है कि 'यह' 'यह' नहीं है, 'वह' 'वह' नहीं है । तब 'यह' और 'वह' क्या है, कैसे मालूम हो ? यही कैसे मालूम हो कि ऐसे मालूम हो ?
चिन्तामरिण दुबला होता जाता है। स्त्रियों से मिठास से बोलता है ।
और मुस्कराकर बोलता है । वह जानता है, बच्चों, मूर्खों और स्त्रियों से ऐसे ही बोलना चाहिए । विद्वानों से वह बोलता ही नहीं । बोलता है तो और भी मुस्कराकर बोलता है, क्योंकि जानता है कि वे सबसे भारी मूर्ख होते हैं ।
पर हाय, ये सब मूर्ख इसीसे उस पर और मुग्ध होते हैं । तब वह उनके लिए रोना चाहता है । उसको बड़ा क्रोध आता है । पर कौन है जो निरीह नहीं है और जिस पर वह क्रोध तक कर सके ?
कल शाम वह क्यों ह्विस्की की बोतल साथ लेता आया, क्या कोई जानता है ? शायद कोई नहीं जानता । और वह क्या जानता है ? क्या वह अपने ऊपर विजय पाना चाहता है ? वह सब बात पर विस्मित है, लज्जित है ।
जितने धोखे खड़े किये
शराब से उसे अत्यन्त घृणा है । आदमी ने उनमें शायद सबसे बड़ा यह है । एक इससे भी बड़ा धोखा है, वह है परमात्मा । लेकिन वह तो इतना बड़ा है कि उस में पड़ कर आदमी को
यह सूझ ही नहीं रहती कि यह धोखा है। कि यह वह खुद नहीं है, जो है शराब है,
शराबी नशे में भी जानता है धोखा है ।