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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवां भाग ]
प्राज पिछले आठ वर्षों से चिन्तामणि अपने प्राण - प्ररण से खोजता रहा हैं कि वह मिले जिसे कहते हैं - 'परमात्मा'... वह एक और अकेला झूठ, जिसके आगे सब झूठ सिर झुकाते हैं; वह धोखा जिसमें हमारी सब सच्चाई बहकर ऐसी खो जाती है जैसे समुद्र में नदियाँ; वह शून्यता जिसमें हमारा सब वास्तव समाया हुआ है । वह परमात्मा मिले जिसमें
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सब कुछ एक साथ मिलता है । वह नशा जो कभी उतरे ही नहीं । उसे चाहिए वही सनातन, शाश्वत, अवास्तव सत्य जिसके आशीर्वाद से नितप्रति रङ्ग बदलने वाला सब झूठ सरस हो जाता है। वह एक जिसका सबको आसरा है ।
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पर सब ज्ञान छान मारा वह तो कहीं मिला नहीं। कहीं नहीं मिला, कहीं नहीं मिला। क्या वह मिलेगा भी ?
नहीं ही मिला, तो चिन्तामरिण श्राज यह ह्विस्की की बोतल ले श्रया है । इसकी मदद से पाँच मिनट, घण्टा प्राध-घण्टा तो जरूर ही कुछ न पाने पर भी सब कुछ पा रहा जैसा अपने को समझेगा । अरे, कुछ सुरूर तो मिलेगा । खुदी भी तो बेखुदी में ही है । वह खुदी भी क्या कुछ न मिलेगी ?
बोतल आलमारी में रखकर वह अपने अकेले कमरे में पलङ्ग पर श्राकर लेट गया । वह छत की तरफ देखता हुआ सोचता रहा, सोचता रहा । फिर ईशोपनिषद् लाकर लेटे-लेटे उसे पढ़ने लगा । एक मन्त्र पढ़ा और उसमें डूब गया । किताब बन्द करके एक तरफ रख दी और दोनों हाथों से श्रींख मींचकर करवट लेकर पड़ रहा ।
रातभर क्या उसे नींद आ सकी ? लेकिन वह जागता भी नहीं रहा। तमाम रात उसका सिर चकराता रहा। बीच में कई बार उठकर बरामदे से बाहर आकर ठण्डी हवा में वह टहल-टहल गया । पर दिमाग में क्या धमाधम चल रहा था कि घड़ी-भर को चुप न हुआ ।
आखिर चार बजे का घण्टा उसने साफ सुना । उसने अपनी घड़ी देखी । सेकिन्ड से किन्ड सही थी ।
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