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व्यर्थ प्रयत्न
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और चिन्तामरिण उनके क्षत-विक्षत हृदयों के बीच में से, दाएँ-बाएँ
अब बत्तीसवां वर्ष पार कर
।
देखता हुआ, बराबर अपनी राह पर चलता रहा है । कभी सूना-सा लगता है, तो लगो कुछ याद उठती है, तो उठो । यह तो व्यक्तित्व की त्रुटि है । तभी तो चाहिए साधना । श्रौर वह भीतर का और बाहर का सब सूनापन पी जाना चाहता है । वह नहीं जाता सिनेमा, नहीं देखता मेले-तमाशे, जलसे जलूस, और नहीं शामिल होता हा-हा - ही - ही में । वह खाली वक्त को खाली रखता है और वक्त के खालीपन से अपनी जान बचाने के लिए किसी भी ढकोसले में, किसी भी ओट में, जा छिपने में विश्वास नहीं करता। वह वक्त को बिताएगा नहीं, उसे झेलेगा । वह उस समय की शून्यता में आँख गड़ा कर देखता है । देखता है कि, जो हो, दोखे । अपने मन की ही प्राकांक्षात्रों की तस्वीरों को उस वर्णहीन समय के पट पर देख कर तो मान जाने वाला चिन्तामरिग है नहीं । वह वही देखना चाहता है, जो है । पर जो है, वह शून्य है । शून्य अपने पेट में भी शून्य ही है । इसलिए दीखता यह है कि कुछ नहीं । पर नहीं कुछ दीखता तो न दीखे, चिन्तामरिण हारनेवाला नहीं है, भागनेवाला नहीं है । क्या सब कुछ एक कोरा 'नहीं' है, यह वह मान ले ?
आँखें उसकी बन्द नहीं हैं, वह जगत् पर इतनी खुली हैं जितनी खुल सकती हैं । देखता है— ये लड़कियाँ हैं, ऐसी हँसती हैं जैसे फुहारा । आज नीले रंग की साड़ी है तो कल लाल रंग की । जैसे फूलों से भरा बगीचा हो, वैसे उनसे भरा संसार है । दीखता है - यह चाँदनी चौक है । यहाँ सब कुछ अपने को दिख रहा है । यह विलायती बाजार है, जहाँ क्या नहीं हैं जो लुभावना है । सब देखता है, लेकिन... अँह... उसका मन उन में खिंचाये नहीं खिंचता ।
देखता है - सड़क के किनारे पड़े ये कोढ़ी हैं, ये भिखारी । अस्पताल में से यह चीख ना रही है । ये मरघट पर मुर्दा लिये जा रहे हैं, जो घड़ी -: -भर पहले जिन्दा था। यह शोर है, यह हड़ताल है, यह जलूस है, यह सभा