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दर्शन की राह
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निश्चेष्टता मुझे प्रिय हो चली थी। और जैसे-जैसे निवृत्तिभाव बढ़ता था वैसे ही सुधा की आँखों में में दया पात्र होता जाता था ।
एक रोज की बात — कि मैं सुनाता हूँ कि अपनी उपासना की कोठरी में अकेली बैठकर, आँख मूँदे सुधा प्रार्थना कर रही है । कह रही है कि हे भगवन्, मेरे पति को सुबुद्धि दो । नहीं तो मुझे बल दो कि उनकी राह से में हट जाऊँ ? मुझे लेकर वह तुमको भूल रहे हैं और कर्तव्य को भूल रहे हैं। उन्हें जगाग्रो, नहीं तो मुझे उठा लो ।
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नहीं, और में अब नहीं कहूँगा । है अब क्या कहने को ? मेरा मन जैसे जड़ हो गया । उसके बाद मुझ से सुधा की भोर प्राँख उठाकर देखा नहीं गया । मैंने सोच लिया कि अब वक्त आ गया हैं कि मैं किनारा ले जाऊँ । ऐसे निष्फल तिरस्कृत जीवन से किसका क्या लाभ ? मैं भी उसे क्यों ढोऊं ?
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लेकिन वह हो न पाया। एक-एक कर पांच-छः दिन और बीते । दिवाला सिर पर श्रा टूटनेवाला हो गया । पल बिताना तपस्या थी । हर पल माथे पर टूटता पहाड़ दीखता । पूर्वजों की संचित इज्जत धूल में मिलने की घड़ी आ पहुँची। पर मैंने कहा कि हो, जो होना है हो । मुझे उसमें क्या करना है ।
पर यदि मैंने कुछ नहीं किया तो सुधा ने ही कुछ किया ! बहादुरी उसे मैं नहीं कहूँगा । धर्म भी में नहीं कहूँगा । पर जो उससे बना, किया । वह गयी, और रेल के नीचे जाकर कट गयी । .......
.. कटने के साथ वह साँस लेने को भी बाकी न रही । टांगों पर से वह नहीं कटी थी। सिर ही कुचल गया था । और इस प्रकार अंग-भंग हुआ था कि याद करते......