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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग ]
मैंने उस समय चाहा कि कहूँ कि तुम किसी भी और तरफ की बात न सोचो, सुधा । मैं तो हूँ और मेरा सब प्रेम तुम्हारा है। लेकिन में कुछ कह नहीं सका ।
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सुधा अन्त में मुँह फेर कर यह कहती हुई चली गयी कि मेरी जान चाहते हो तो कारोबार को कुछ देखो - भालो ।
लेकिन मेरे मन में कारोबार नहीं था । मेरे मन में हुआ कि सपने क्या झूठ होते हैं, और कारोबार सच ? नहीं, ऐसा में अब भी नहीं मानता | अपने सपने को हम जिला सकें इससे अधिक हमारे लिए कोई काम महत्व का नहीं है । मैं अपने सपनों को कैसे गँवा देता ? लेकिन सुधा नहीं, तो सपना क्या ? केन्द्र ही नहीं, तो परिधि का विस्तार क्या ? इस • से जब मैं देखता कि सुधा मुझ से दूर होती जा रही है और उसकी र से अश्रद्धा ही मुझ तक पहुँचती है, तो मेरी सारी क्षमता और सब उत्साह अवसाद में मुरझा कर रह जाता । अपने में मेरी निष्ठा न रह जाती । सोचता कि जाने दो कारोबार को चूल्हे में। जब में स्वयं नहीं हो सकता हूँ तो कारोबार होकर क्या होगा ?
माँ ने चेताया । मित्र ने समझाया । लेकिन उसमें समझने की बात मेरे लिए क्या थी ? आँखें तो मुझ में भी थीं । देखता था कि सब गड्ढे में जा रहा है लेकिन मुझ में तो गड्ढे से बचने या बचाने की इच्छा ही नहीं रह गयी थी । सब कहते थे कि तुम्हें यह हो क्या गया है ?
मैं उचट कर कहता कि मेरी समझ में नहीं आता कि मैं क्यों जी रहा हूँ ? मैं बड़ी आसानी से मर सकता हूँ । और आप लोग यही चाहते हो, तो यही हो जायगा । नहीं तो मुझे क्यों कुछ सुझाते हो । जगते को तो जगाया नहीं जा सकता ।
आज उस अवस्था को में पूरी तरह याद नहीं कर सकता हूँ ।