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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवी भाग ]
घर की स्थिति बुरी न थी और मैं जवान था । सो रंग-राग में मैंने अपने को डुबा दिया । लेकिन आदमी क्या अपने को सचमुच डुबा तक सकता है ? ऊपर जो तारनहार है । वह सहायक हो तो डूबता भी तिर आता है ।
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सुधा जाने क्या चाहती थी अनुपम सौन्दर्य पाकर मन उसने फिर ऐसा तरंगहीन क्यों पाया था ? मैंने अपनी सारी आकांक्षाएँ उस पर वार दीं। पर जैसे वह मुझे राम के आदर्श में रखकर देखना चाहती थी । उसका अपना मन सीताजी में था। उसके संस्कार मुझे पतिरूप में स्वीकार करते थे । पति तो देवता ही है । पर जैसें में स्वयं में होकर उसकी निगाह से श्रोछा ही रह जाता था । मेरे समर्पण में उसे राग न था । मालूम होता था कि जैसे वह मुझे कुछ अन्य देखना चाहती है । मानो मुझे देवता पाना चाहती है । इसी से मुझे कभी अनुभव नहीं हुआ कि मैं उसे पा सका हूँ ।
जगत् के बहुमूल्य उपहारों को दिखा कर मैंने कहा, "सुधा लोगी ?" मानो सुधा कहती, "मैं दासी हूँ । जो स्वामी की इच्छा । "
मैं कहता, "तुम यह क्यों नहीं जानतीं कि तुमने अप्सरा का सौन्दर्य पाया है, सुधा ?"
मान सुधा कहती, "मेरा काम सेवा है, मुझे लजाओ मत ।"
मैंने चाहा कि उसमें अनुराग हो, लेकिन उसमें विराग ही आता चला गया । और मेरी प्राँखों ने देखा कि उस निस्पृह भाव के संयोग से उसके सौन्दर्य में कुछ ऐसी भव्य शोभा प्राती चली गई कि मैं अपने तई हीन लगने लगा । हीरा-मोती के आभरणों से साग्रह सजा कर मैं उसे देख सकता तो वह मुझे पास भी जान पड़ती, जैसे वह सौन्दर्य प्राप्य भी हो। लेकिन नीची प्राँख से काम करती हुई सफेद धोती में जब मैं उसे देखता - और यही उसकी रुचि की वेष-भूषा थी- तब मैं मन में सहम कर रह जाता था । अलंकार - श्राभरण से विहीन उसका शुचि सौन्दर्य