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________________ दर्शन की राह ११५ स्टेशन आने पर कुली बुलाया गया, ताला खोला गया, माल के डब्बे से बुड्ढे को खींचकर उतारा गया, एक आदमी साथ टूटी टाँग लेकर चला । और बुड्ढा अब तक बराबर जीता था, और देख रहा था.......... फिर डब्बा धुल गया । सफाई हो गयी । दाग कहीं नहीं छोड़ा गया । हुई बात बीती और गाड़ी स्टेशन से चल दी । उस समय मैंने क्या किया ? सुध खोई रही तब तक खोई रही, अन्त में सुध पाकर वह सब बिसार देने की मैंने कोशिश की । मेरे पास सुधा थी, दूसरे दर्जे का रिजर्व डब्बा था । फिर मैं उस टाँग कटा लेने वाले बेहया बुड्ढे की याद पर किस भाँति क्षरण-भर भी रुक सकता था ? निष्ट को भूल, इष्ट को ही मैंने याद रखा और उसी ओर मुँह फेर कर कहा, “सुधा'..... लेकिन क्या तुम समझते हो कि ऐसे सहज बचना हो सकता है ? हम अपने में बन्द नहीं हो सकते । जगत्-घटना से बचकर कोई कहाँ जायगा ? और भोग से अधिक सत्य है मृत्यु । भोग में होकर क्या मृत्यु को भुलाया जा जकता है ? जीता जा सकता है ? पर मैंने वही चाहा और वही किया जगत्-सत्य से आँख मींच लेनी चाही और हाथ के सुख को चिपटकर पकड़ लेना चाहा । लेकिन क्या हुआ ? देखा, तो हाथ खाली था । उसकी पकड़ में कुछ न प्राया था । और जिसे बचाया था वही आग का शोला बनकर सदा के लिए आँख में समा गया । वह एक चेतावनी थी जो मुझे सदा को चेता गयी । मेरा सब चला गया । सब उजड़ गया। लेकिन एक सीख मिल गयी । २ : अरे भाई, सब तुम्हें क्या सुनाऊँ ? छोड़ो-छोड़ो, उसमें कोई खास बात नहीं है ।
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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