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११४ जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातला भाग] कर मैं भी उसके साथ हो गया। पीछे मालगाड़ी का डब्बा था, उसको खोला गया।
गार्ड ने कहा, "जल्दी करो जल्दी, गाड़ी लेट है।"
लोगों ने मुलाकर बुड्ढे की लोथ को डब्बे तक पहुँचाया। बुड्ढा अभी जीता था। दर्द के मारे वह कराहा और चौखा।
"जल्दी करो, जल्दी । अरे उसको पीछे की तरफ धकेलो और पीछे। गाड़ी लेट है।"
उस शरीर में मानो इच्छाशक्ति नहीं रह गयी थी। सिर जिधर होता उधर ही लटका रह जाता था । खैर, धकेल कर उसे ज्यों-त्यों पीछे किया गया।
"बन्द करो, दरवाजा बन्द करो।" लोग मालगाड़ी के डब्बे के लोहे के दरवाजे बन्द करने लगे।
"ओह, तू यहाँ खड़ा है ! यह टांग उसके साथ नहीं रखी ? टांग भी उसमें रखो।"
दरवाजा फिर खुला और वह टांग बुड्ढे के पास फेंक दी गयी। वह कटी टाँग बुड्ढे के सिर के पास जाकर लेट गयी।
लहू से कपड़े और डब्बे का फर्श लाल हो गये थे । पर बुड्ढे की जान निकली न थी। वह अब कराह नहीं रहा था, न चीखता था। वह मानो अचरज से हम जीते हुओं को देख रहा था। और उसी भाव से अपने ऊपर बन्द होते हुए लोहे के दरवाजे को वह देखता रहा।
प्रासपास जमा हुए लोगों को गार्ड ने कहा, "क्या यह तमाशा है ? चलो चलो, गाड़ी लेट है।"
कहकर वहीं से उसने गाड़ी चलने की सीटी दी।
मैं अपने डब्बे में आ गया । बुड्ढा मालगाड़ी के ढकने में उचित ढंग से बन्द हो गया था। ऊपर ताला जड़ गया था। गाड़ी लेट पहले से थी, अब वह चल दी।