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दर्शन की राह
सुधा ने पूछा, "क्यों क्या हुआ ?"
जैसे हठात् अपने सिर से कुछ टालते हुए मैंने कहा, "होगा कुछ, तुम्हारी छोटी लाईन है, जो न हो थोड़ा है।"
जवाब देकर मैंने चाहा कि गाड़ी चल पड़े और मैं इधर-उधर की कोई बात सोचने को खाली न रह जाऊँ । ___ इतने में सुधा खिड़की से बाहर होकर झांकने लगी । बोली, “सब लोग जा रहे हैं । जाकर देखो तो क्या है।"
मैंने अपने विरुद्ध होकर कहा कि "होगा कुछ, छोड़ो भी।" सुधा इस पर कुछ न बोली और बाहर की ओर ही देखती रही। .
में डिब्बे के अन्दर लगे हुए रेल के नक्शों को आँख बांध कर देखने लगा । जैसे मुझे मन को किसी भी दूसरी तरफ नहीं जाने देना है ।
"अरे, उसे उठाके लामो न ।"-यह कुछ ऐसी बानी में कहा गया कि मैं चौंके बिना न रहा। सुनकर मैं खिड़की पर पहुँचा और बाहर देखने लगा। कई प्रादमी एंजिन की तरफ से हमारी तरफ एक आदमी को उठाये हुए आ रहे थे । वे पास आये, कि सुधा ने अपने मुह को हाथों से ढंक लिया और बैंच पर औंधे मुह पड़ गयी। जो देखा वह दृश्य उसे असह्य हुआ। मेरी तो आँखें उस पर गड़ रहीं।
साठ से ऊपर उमर होगी। देह से क्षीण । आँखें खली थीं। साँस तेजी से आ-जा रहा था। वह इधर-उधर भौचक्का-सा देख रहा था। उसकी एक टाँग जाँघ के पास से कटकर बिलकुल अलग हो गयी थी। वहाँ से गोश्त के छिछड़े लटक रहे थे और खून बह रहा था। कटी टाँग को एक आदमी अलग हाथ में उठाये हुए आ रहा था। ____ वह बुड्ढा उस अपनी कटी टाँग की तरफ देखता और फिर अपने को ले जाते हुए उन आदमियों की तरफ देखता । जैसे उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मेरे सामने से वे उस आदमी को ले गये। उतर