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) दर्शन की राह
११७ मुझे ऐसा बिरल जान पड़ता कि अप्राप्य । इच्छा होती कि सदा वह रंगविरंग साड़ियाँ पहने रहे कि मुझे ढारस तो हो कि वह हम सबके निकट है । नहीं तो वह दूर, दूर, दूर कहाँ चली जा रही है कि ज्ञात नहीं ! मालूम होता था कि जिस धरती पर मैं हूँ उससे वह उड़ती जा रही है। अरे, कहीं एकदम ही उड़ न जाय ! तब मेरा क्या हाल होगा?
सुधा ने एक रोज कहा, “तुम मुझे इतना प्रेम क्यों करते हो ? शरीर तो नाशवान है।"
मैंने कहा, "नाशवान कुछ नहीं है। वह शब्द मुह से न निकालन।।" __ बोली, "उस बुड्ढे को भूल गये ? सब की काया में वही है। माँस है, रुधिर है, वहाँ कोई सौन्दर्य नहीं है।" ____ मैंने कहा, "सुधा, तुम ऐसी बातें न किया करो। वे क्या तुम्हारे मुह के लायक हैं ?"
__ कुछ रुक कर वह बोली, "तुम्हें फिर अपने काम धन्धे का क्यों ख्याल नहीं है ? माँ कितनी चिंतित रहती हैं, जानते हो ?"
सुनकर मैं उसकी तरफ देखता रहा । जतलाया कि जानता हूँ।
"क्या देखते हो ? मेरी ही वजह से तुम घर को चौपट किए दे रहे हो न?"
"हाँ"-मुस्कराता हुआ मैं उसे देखता रह गया।
सुधा गुस्से में बोली, "तुम हँस सकते हो। पर तुम्हारी हँसी मेरे खिए क्या फल लाती है, यह क्या तुम अब तक नहीं जान पाये हो ?"
मैंने कहा, “सच सुनना चाहती हो सुधा ? तो सुनी; पैसा जब तक सब न चला जायगा मैं सीधी राह पर न आऊँगा। से की राह टेढ़ी है। पैसा है तो मैं सीधे कैसे चल सकता हूँ, तुम्हीं कहो ?" ___ सुधा ने गौर से मेरी ओर देखकर कहा, "यह क्या कह रहे हो ?"
मैंने कहा, "सुधा, सब भूल जायो । कर्तव्य को क्यों याद करती हो, जब तक सुख सामने है ? मुझे कर्तव्य की याद न दिलायो। मुझे कष्ट