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दर्शन की राह
जिनकी यह बात कहता हूँ उनका नाम आप न जानते हों, यह कम सम्भव है । यह भी आप जानते ही होंगे कि उनका एक ही उपदेश है कि मौत को सामने लो। स्थान-स्थान पर इस आदेश की घोपणा के अतिरिक्त मानो उनके लिए और कुछ नहीं है। ___मृत्यु कोई प्रिय वस्तु नहीं है, पर उनके अन्दर घाव है । वह क्या ? वही एक दिन मैं पूछ बैठा। (मुझ पर उनकी कृपा है और स्नेह है।) पूछा, "क्या मौत को चाहना होगा ?" ____ बोले, "नहीं । पर उद्यत तो रहना ही होगा। स्वेच्छित मृत्यु मुक्ति है । मृत्यु का चित्र हमें सदा प्रत्यक्ष रहे तो क्षुद्रता में हम न गिरें ।" ___जैसे उस विषय पर उनका मन सदा भरा रहता है । हल्की-सी कोई छेड़ मिलनी चाहिए। फिर तो वह फूट ही चलते हैं।
मैंने कहा कि मृत्यु का दबाव हमारे मन पर हर घड़ी बना रहे . तो क्या इससे उस मन के विद्रोही हो पड़ने की आशङ्का भी न हो जायगी ? में तब सोच सकता हूँ कि आगे मौत ही तो है ही, फिर क्या तो विवेक और क्या अविवेक ? मन का अंकुश इससे ढीला भी तो हो सकता है न ?
खिन्न-भाव से वह बोले कि, "हाँ हो भी सकता है। पर मुझे उससे
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