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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग लाभ हुमा है । जो न झेल सके उसे उस दर्शन से बचना चाहिए। लेकिन सच्ची शक्ति सदा झेलती है। मौत से आँख बचावें तो लगायें कहाँ ? अन्त में निषेध ही सत्य है। ईश्वर नेति है। ड्राइंग-रूम की सजावट को अपने चारों तरफ लपेटकर कोई आश्वस्त नहीं रह सका । जो प्रावरण और परिधान हमने खड़े किये हैं उन सबको पाकर मृत्यु हर समय हमारे तन को छूये रहती है । सो ही हमारा जीवन है । जगत् मृत्यु के । वरदान पर मुखर है। वर्तमान का हर पल चुककर भूत होता जा रहा है। कहाँ जाकर तुम आँख मींचोगे ? तुम तुम्हीं नहीं हो । तुम बाप हो, . भाई हो, पुत्र हो, पति हो। सम्बन्धियों के बीच तुम्हारी सम्भावना है। वे सम्बन्ध सम्बन्ध न बनें, इससे वे जुड़ेंगे और टूटेंगे। तुम समर्थ होओ, . इस हेतु में तुम्हारे मां-बाप मरेंगे। शावक उड़े, इसके लिए खोल को टूटना होगा। बीज मरकर वृक्ष उगायगा। हमें जन्म देकर माता-पिता मत्य की तरफ बढ़े- हम जन्म स्वीकार करके इसे उचित मानते हैं। इसी में मृत्यु की प्रतिष्ठा है। जीवन प्रपञ्च है और भूल है, यदि उसकी मृत्युपूर्वकता का भान हमें नहीं है । मृत्युपूर्वक वही सुख-दान है ।... मैंने यह शुरू में नहीं समझा। मौत अपनी नग्न सज्जा में मुझ तक आई । वह आई थी मुझे विशद करने. पर मैं संकुचा। मैं सिमटा और उसे टाला । उस सम्पद को विपद मान डर के मारे मैं चिपट बैठा उससे जो प्राप्त था। इसी में वह प्राप्त मुझ से विमुख होकर खो गया। मृत्यु के द्वार से ही प्राप्य प्राप्त है । अन्यथा, प्राप्त मात्र प्रवञ्चना है। आज उस अनन्त के द्वार से में देखता हूँ तभी सत्य प्रतीत होता है। नहीं तो सब माया है । इसी से कहता हूँ कि मृत्यु द्वार को जीवन-यात्रा में सदा सम्मुख रखो। तब सब तुम्हारे लिए सत्य है, शिव है, सुन्दर है। नहीं तो......" - मैंने देखा कि कहते-कहते वह कहीं और पहुँच गये हैं । अन्त में सहसा ठिठक कर वह मुस्कराये-करुण मुस्कराहट । मानो अपने लिए भी उनके पास करुणा ही है।
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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