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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवा भाग] वह वहाँ अकेली है, दीना नहीं है, चम्पो भी नहीं है, जाने कहाँ चले गये हैं । और वह बे-पैसा है, और पिछले चार महीनों का मकान का किराया उससे ही लिया जाने वाला है।
तब बड़ी शीघ्रता से परमात्मा ने उसे बुढ़िया बना दिया। और किसी को चालीस बरस लगते, रुक्मिणी का प्राधे काल में यह सब काम निबट गया, और वह रुकिया बन गई।
किन्तु यह समझ लेना चाहिए कि वह रुकिया है, रुक्मिणी स्मृति द्वारा भी नहीं है । स्मृति से छुट्टी लेकर वह बैठी है । स्मरण करे, इससे अच्छा नकदानकद बालकों को क्यों न कोस कर वह अपना काम चला ले, और उनमें ही क्यों न पूरी तरह मग्न हो ले।
पुनर्जन्म भी तो लोग मानते हैं । किन्तु तब के नातों को कोई याद नहीं रखता । तब की बातों को हम सब छुट्टी दे चुके होते हैं। तब हम यह थे, इसका दम्भ हमें नहीं फुलाता; यह न थे, इसका दुःख भी हमें नहीं सताता । उस सब घटित अतीत से अपने को सर्वथा तोड़ कर नये जन्म में हम जीते हैं। नहीं तो अपने अनन्त इतिहास का बोझ अपने माथे पै लेकर हम जी सकते हैं ? हमारा ज्ञान संकुचित है, यही हमारा वरदान है । हम परिमित हैं, यही हमारा धन्य भाग्य है।
रुकिया को रुक्मिणी के साथ मत जोड़ो। न-न, वह सपने में भी भूल कर अपने को उन दिनों से नहीं जोड़ती। वे उसके भीतर कहीं कायम ही नहीं हैं, नहीं, बिलकुल नहीं हैं। ___इसी से वह कहती है, "भगवान्, सबका भला करे । दुनिया के लिए उसमें कड़वाहट नहीं है।" . पर ये बालक ! ये कोई दुनिया के हैं, जाने किस लोक के जीव हैं ये !-शरारती, दंगई, सब-के-सब । और वह कहती है, "हे राम, तू इन्हें सबको मेरे सिर पै से कब उठायेगा ?"