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, रुकिया बुढ़िया
१०५ चम्पो-"तुम भूखे रहो, और मेरी हैरानी की गिनती हो । देखो, रुकमन कैसी सूख रही है । उससे ठीक रहा करो। ऐसी भाग से मिलती हैं, कैसी सुन्दर है, सुशील !... और, लो, मैं जाती हूँ, तुम दोनों के बीच में मैं न रहूँगी। और खा-पीकर तुम आराम करना, लड़ना-लड़ाना मत।" ___ चम्पो चली गई, और दीना ने कहा, "रुकमनी, अब तुम यह खा लो। खा-पीकर फिर सो जाना है । सुना ?"
रुक्मिणी ने कहा, "अच्छा।" और उठकर उस खाने को लेकर बाहर चली गई। और दीना खाट पर लेट कर चम्पो भाभी को देखने लगा।
रुक्मिणी ने बाहर आकाश देखा, तारों से भरा था। और उसके नीचे जगत सोया था। सबकी आँखें नींद से और सपनों से भरी हैं, और उसकी आँखें-उसकी आँखें किसी से भी नहीं भरी हैं, बिलकुल सूनी हैं, रीती हैं, अाँसुओं से भी नहीं भरी हैं। हाँ, उसके हाथ उस खाद्य से भरे हैं, जो जहर है, पर जहर होकर भी, मरने तक के लिए जिसे वह खा नहीं सकती। आधी रात में, तारों की असंख्य आँखों के नीचे, उस अखाद्य खाद्य को हाथों में लेकर खड़ी है कि वह उसे, उन दैदीप्य नक्षत्रों के साक्ष्य में, क्या करे ?
और वह जानती है, भीतर कमरे में है एक दीना, जिसको लेकर वह कहीं से टूट कर आज यहाँ खड़ी है । वह, दीना, अवश्य निश्चिन्त पड़ा हुआ है कि वह जल्दी लौटती है, या कब लौटती है, या लौटती भी है या नहीं___ वह खाद्य को अवज्ञा के साथ मोरी में नहीं फेंक सकी, जैसा कि वह चाहती थी। उसने उसे बाहर, खुली छत पर खुला छोड़ दिया।
और, आई कि दीना सो चुका था।
ऐसे दिन बीते कि जल्दी वह दिन आ गया, जब कहने की आवश्यकता ही जड़-मूल से नष्ट हो गई कि 'तू निकल जा।' उसने पाया कि