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जैनेन्द्र की कहानियां [सातवाँ भाग]
पीढ़े पर बैठकर चम्पो ने कहा, "लाला, तुम रुकमनी से जोर से मत बोला करो। वह ऐसी सुशीला है । वह सहार नहीं सकती।"
रुक्मिणी ने धीरे से पूछा, "तुम्हारे कुछ खाने को बचा होगा ?"
चम्पो-'तो तुमने कुछ खाया नहीं, लाला? पहले से क्यों नहीं कही ? और तुम भी ऐसे हो कि भूखे हो, सो उससे लड़ने को बैठते हो।"
दीना-नहीं-नहीं, मैं भूखा नहीं हूँ।"
चम्पो-"मुझे लाने में देर कितनी लगती है। और मैं कोई घिस नहीं जाऊँगी।"
दीना-"नहीं भाभी, तुम हैरान मत हो । मुझे भूख नहीं है।" ।
चम्पो चली गई, और रुक्मिणी बिस्तर ठीक करने से हटकर फर्श पर बैठ गई।
दीना ने कहा, "देखो, एक यह है कि कैसी बोलती है, और तुम"रुक्मिणी वही फ़र्श को देखने लगी।
अब दीना में क्रोध नहीं है। चम्पो-भाभी यहाँ हो गई है-अब वह उदार है, मीठा है।
दीना-"मैं तो खाऊँगा नहीं। और तुम भी तो भूखी होगी। लो, यह मुझे पता ही न रहा कि तुम भी भूखी हो । तुम्हीं खाना।"
रुक्मिणी खा सकेगी ? न-न, वह नहीं खा सकेगी। वह चुप रही।
दीना-"देखो, तुमको ही खाना होगा । इन्कार न हो सकेगा। चम्पो नहीं तो फ़िजूल हैरान होगी।" __ रुक्मिणी-"मुझे भूख नहीं है।"
दीना-"भूख नहीं है तो दूसरी बात है । पर, भूख होनी चाहिए। क्यों नहीं ?"
चम्पो ( आकर )-"लो, लाला ! यही था, और ज्यादा तो था नहीं।"
दीना-भाभी, तुमने यों ही हैरानी की।"