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रुकिया बुढ़िया दीना के पैर छूट गये और वह खाट पर पा रहा । गुम-सुम, कुछ क्षरण बोल उसे नहीं सूझ सका । वह अपने ही खिलाफ़ लड़ रहा है,अपनी चेतना के किसी भा अंश में उसे यह भान नहीं है, सो नहीं है। इसीलिए, इस भांति, माना प्रणबद्ध, वह कठोर है।
कुछ देर में दीना ने कहा, "कुछ नहीं था, तो चम्पो से क्यों नहीं मांग लिया ?" ___ रुक्मिणी उसी भाँति फ़र्श को देखती रही। चम्पो !-इस नाम पर वह अडोल, चुप, वैसी ही रही।
दीना-"क्यों, वह डायन है ?" रुक्मिणी चुप। दीना-"वह नहीं, डायन तू है, तू है । —सुना?"
रुक्मिणी झपटकर फिर उसके पैरों से चिपट गई-"हाँ,डायन मैं हूँ, मैं हूँ। मैं ही डायन हूँ। तुम्हारे पैर पकड़', मुझे मार दो।"
तभी बाहर से आवाज़ आई, "लाला, क्या है ?--क्यों चिल्ला रहे हो ?--और चम्पो के उधर ही आने की पदध्वनि भी आई।"
दीना ने कहा, "अरी, छोड़-छोड़, ठीक से बैठ !"
रुक्मिणी ने पैरों को और कस लिया। कहा, "मुझे मार दो, मार दो।"
हे-हें, देख, कोई आ रहा है ।' दीना लज्जा और असमन्जस से भीत वाणी से बोला।
और बाहर पैरों की आहट सन्निकट आ गई। रुक्मिणी, तुरन्त पैर छोड़, खाट के बिस्तरों को ठीक करने लगी। ___ "लाला, क्या शोर है" कहती हुई चम्पो पाई, "घर में और भी तो हैं । तुम न सोमो, उन्हें तो बिचारों को सो लेने दो। क्या बात है ?"
दीना-"कुछ बात नहीं, भाभी ! तुम्हारी खाँसी कैसी है अब?रुकमनी, देख उधर पीढ़ा है, भाभीजी को बैठने को दे न दे, खड़ी हैं।"