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रुकिया बुढ़िया
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फिर तट सूना हो जाता है । लोग चले जाते हैं । जमना अकेली बहती रहती है । पथ निर्जन दीखता है । प्रान्त सन्नाटा ले उठता है । कभी-कभी मोटर भागती प्राती, और धूल उड़ाती हुई भागती चली जाती है, सपने में जैसे चिड़िया अपनी राह श्रई, और उड़ गई। पेड़ वैसे ही खड़े रहते हैं । और वटोही, पराये से, कुछ ढूंढते- से, राह जाते दीखते हैं ।... और धूप सिर पर आती होती है
तब वह चारों ओर देखती है, और साँस लेती है, और डलिया में अवशेष फूल-पत्तियों को, और आज पाये पैसे और अनाज को अलगअलग सँगवाकर, उठ खड़ी होती है, कपड़े झाड़ती है, अँगड़ाई लेती है, और सिर पर डलिया लेकर चल पड़ती है ।
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चलती चलती, ठीक सूरज की जलती आंख के नीचे तीन मील राह तै करके घर आती है | वही घर, जहाँ दिन में रात रहती है, और रात नरक रहता है । और दिन-रात यह बुढ़िया रहती है ।
फिर तीसरे पहर जाती है, और अँधेरा हुए श्राती है, और फिर अँधेरे अँधेरे में ही तड़के तीन बजे चली जाती है ।
सुबह को इस तरह वह शाम से मिला देती है, इस तरह रात काटती है, और अपने जीने के दिन काटती है ।
: ३ः ।
क्यों जी, बुढ़िया के और रुकिया के और फूलवाली के अतिरिक्त क्या कुछ और, यह कभी नहीं रही है ? क्या यह जन्म की बुढ़िया ही है, ऐसी ही बुढ़िया है ?... किन्तु कभी यह और कुछ कैसे रह सकी होगी ? बुढ़िया और नानी न होकर यह कैसे होगी ?...
और क्यों जी, बालकों ने मिलकर नानी बनाया है, तो क्या उन्हें पता चला है कि यह माँ कब बन सकी थी ? जीवन में यह कब माँ बनने का अवसर पा सकी है ? - या पा सकी भी है या नहीं ?...
पर इसमें भाई, बालकों का कोई जिम्मा नहीं है, और यह कोई तर्क