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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग ]
ऐसी कौन-कौन हैं, यह उसने कभी भी अपने मन को दिया है। एक ही श्रद्धा भाव से सबको दोने देती है । उससे नहीं छिपता सही; पर इकन्नी डालने वाली इस भीड़ में से खास कौन है, मानो यह पहचान और याद रखने की उसमें सामर्थ्य नहीं है । कभी कोई माई कहती है, "रुकिया, आज में पैसा लाना भूल गई हूँ, और भी कुछ नहीं ला सकी हूँ ।"
तब रुकिया को ऐसा प्रतीत होता है, जैसे किसी अभियोग का श्रारोप उस पर किया जा रहा है । वह बचाव सा करती है, कहती है, "जी, मैंने कभी कुछ कहा है. ?"
माई कहती, "कल लेती आऊँगी, रुकिया ।"
और रुकिया का जी मानो एकदम कठोर हो जाना चाहता। उसके जी मैं होता, कह दूँ, तो कल ही ले जाना प्रसाद' पर उससे किसी भाँति भी कठोरता प्रकट करते न बनती, श्रौर वह तिरस्कृत अपराधी की भाँति कुण्ठा से लजा उठती। उसे लगता, हाँ, वह स्वयं इन फूल-पत्तों के चढ़ावे के दोनों को मोल तोल की चीज़ बनाकर बैठी है ! और तभी जैसे इस पापमयी चेतना का निराकरण कर डालने में सचेष्ट होकर उसका जी कहता, नहीं, मैं इन्हें मोल करके बेचती नहीं हूँ | मैं तो दे देती हूँ, और फिर उसी तरह दूसरों का और परमात्मा का प्रसाद रूप में दान दिया हुआ जो पाती हूँ, उस पै जी लेती हूँ। और वह कहती, "मांजी, कैसी बात तुम कहती हो !"
पता नहीं चलने
इकन्नी गिरना
और माँजी भी अनुभव करतीं कि वह प्रयुक्त बात ही कहती थीं, और संकोचपूर्वक बुढ़िया के हाथों से दोना लेकर चली जातीं ।
कोई दस बजे दिन तक यह रहता है । तब तक वह ऐसी रहती है, मानो उसके भीतर कोई प्रभाव विद्यमान नहीं है । प्राते-जाते से बेकाम भी खुश होकर दो बात कर लेती है; श्रास-पास फूलवालियों से कुछ की बातचीत भी हो जाती है, और किन्हीं किन्हीं से रसीला भी कुछ हो जाता है ।