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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग ]
नहीं है कि नानी बनी हैं, तो माँ उन्हें बन चुकना ही चाहिए। नहीं, बालक सो कुछ नहीं जानते । उनकी यह नानी है, तुम चाहे कुछ कहो, चाहे कुछ करो ।...
लेकिन, हम पूछें, जैसा है वैसा ही क्या रहेगा ? और वैसा ही कौन रहता आया है ? परिवर्तन में से ही हम सत्य देखेंगे । सत्य परिवर्तनीय न हो, हम परिमित हैं | हम यही जानते हैं, जो जैसा है, वैसा न था, और वैसा न रह पायगा । और हमको इसी भाँति जानना चाहिए । इसमें हमारा बस नहीं है । जीता हुआ पुराना होकर मर जायगा, नया जियेगा | नया उठता है, जीत में जीता है, इसीलिए कि हार कर पुराना हो, झड़े, और खाद बनकर धूल में मिल जाय । यह भाग्य नहीं है, - यह सौभाग्य है । इसी सौभाग्य के मंगल चक्र के नीचे, बेबस हम जड़ प्राणी बिलखते हुए जीते-मरते हैं । कम्बख्त हम हँस भी तो नहीं सकते !
सो, यह रुकिया नहीं थी, रुक्मिणी थी । फूल नहीं ले जाकर बेचती थी, स्वयं बोलते फूल की नाई घर के आँगन में चहकती फिरती थी, और माँ-बाप को धन्य करती थी । माँ-बाप पैसे से होन न थे, अच्छे - खाते-पीते थे । उनकी यह पहली लड़की थी, और अब तक आखिरी भी थी ।
ऐसे लुभावने बैन बोलती थी कि क्या कहा जाय ! और ऐसी निखरती - खिलती आती थी कि बड़ी उमर तक, डर के मारे, माँ इसके माथे पै काजल का काला टीका लगा देती थी । चाँद निष्कलंक न दीखे कहीं, नहीं तो गजब हो जायगा ।
इसी भाँति उमर वह हो आई कि माँ-बाप को सोच होने लग गया। -ब्याह करके, अपने घर से दूर कर दें इसे, तब उन्हें चैन की नींद मिले |
और पड़ोस में रहता था एक बढ़ई । ये लोग खत्री थे, और वह खाती । और उस खाती के एक लड़का था । बड़ा हुशियार उठा था ।