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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] मेरे हाथ में अँगरेजी का अखबार था जो उसी स्टेशन से लिया था। और मैंने देख पाया कि उधर उन्होंने देखा है, गोया वह कहना चाह रहे हैं-'मैं अखबार रोज पढ़ता हूँ, लाइए, दीजिए।' मैंने कहा, "मैं पास ही जा रहा हूँ, लीजिए अखबार देखिए।" उन्होंने अखबार ले लिया; उसे हाथों में रखकर पूछा, “गाँधी महात्मा आजकल कहाँ हैं ?" मैंने मन के भीतर कहा, "अजी महात्माजी की फिक्र छोड़िए । उनकी फिक्र आप अपने पर चढ़ने देंगे तो आपका चैन अखण्ड न रहेगा।" और भीतर यह कहकर मैं चुप रहा। मुझे चुप देख वह बोले, “गाँधीजी सच्चे महात्मा हैं, साहब । मैं भी खबर पहनता हूँ। यह देखिए, अन्दर की बनिश्राइन, देशी मील की है । लेकिन साहब, खद्दर महँगा बहुत है। हम गरीब क्या करें ?" मेरा ध्यान अखबारों को पकड़े हुए उनके दायें हाथ पर था, जिसकी नसें उभरी हुई थीं, भूरे-भूरे घने बाल उगे थे, अँगुलियाँ मोटी और छोटी थीं, अँगूठा गुट्ठल था, और कलाई पर चमड़े में जड़ी 'कीप सेक' बैठी मिनट-मिनट सरक रही थी। "दिल से साहय हम महात्माजी के साथ है। लेकिन घर-बार है, बाल-बच्चे हैं । एकदम तो सब-कुछ छोड़ा नहीं जा सकता। हमारे कस्बे में भी एक बार महात्माजी आये थे।" कुछ देर में एक स्टेशन आया, रेल ठहरी और बराबर की बेंच से एक महाशय वहाँ उतर गये । सज्जन उठकर उस खाली जगह चले गये। मैंने कहा, "बैठिए, बैठिए।" बोले, "मैं ठीक हूँ, आप आराम कीजिए।" उन्होंने अपनी आँखों के सामने अखबार फैला लिया और मैं कुछ देर टालकर बिस्तर पर लेट गया।
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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