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________________ १९६ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] मैंने कहा, "अच्छी बात है। जरूर घोड़े पर चढ़ोगी। पर, तुम हल्की कम हो ।” "हाँ, हम मोटे हैं, मोटे हैं। तुम करते रहो ठठोली। और हम घोड़े पर चढ़ना जरूर सीखेंगे । इतिहास में इतनी वीराङ्गनाएँ नहीं हुई हैं क्या ? और, और मुल्कों में जो स्त्रियाँ सब-कुछ करती हैं।" मैंने माना, जरूर करती हैं। और जरूर घोड़े पर चढ़कर ही छोड़ना चाहिए। और मैं यों ही आदमी नहीं हूँ कि मेरी पत्नी किताबी वीराङ्गना तक न बने । श्रादि-आदि। ___ मैंने बताया कि श्रोवरसियर-साहब की वह दूसरी गहरे बदामी रंग की घोड़ी सीधी मालूम होती है। कल उसी पर बैठकर देखो। सबसे बड़ी बात न डरने की है। जानवर को यह न मालूम होने देना चाहिए कि वह सवार पर हावी हो सकता है। जानती हो, आत्म-विश्वास सफलता का मन्त्र है। चलकर श्रोवरसियर साहब से कहेंगे। और देखो, उस लड़के बज्जी को साथ ले लेना। जानवर बिदकने-बिगड़ने लगे, तो मौके को आदमी साथ रहे, यह अच्छा होता है। शाम को जब साथ बैठे, तो मैंने बातचीत में मित्र से कहा, "अापने दो जानवर क्यों रख छोड़े हैं ? देखता हूँ, उनमें आपस में बनती भी नहीं है, और आपका काम भी एक से मजे में चल सकता है।" ' विमनस्क-भाव से वह बोले, "हाँ, पर वह सफेद घोड़ा बदमाश है। बदन में ताक़त है तो उलझे बिना नहीं रहता। अभी तौरस लिया था। काम में मुस्तैद है तो क्या यह मतलब कि औरों को जीने न देगा। यों दोनों को मैं बहुतेरा अलग-अलग रखता हूँ। पर, वह एक बदमाश है। दूसरी, बुढ़िया है। "मेरी मुलाजमत का यह बीसवाँ साल लग गया है। उसे भी बीसवाँ साल ही समझिये । नौकरी पर बहाल हुए चौथे महीने मैंने यह ली थी।
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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