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________________ हत्या १६७ तब तीन बरस की बछेड़ी थी। इसने मेरे साथ अच्छी निबाही। मेरी पेंशन में अब कुछ ही दिन है। आदमी के मुकाबले में जानवर की उमर ही क्या है ? और मेरी मुलाजमत का क्या, एक तरह की अफसरी समझिये। इधर इन जानवरों की लाचारगी देखिये। जो दे दिया वही खा लिया, वही पी लिया, और रहते रहे । न पशुता का सुख न परिवार का सुख । हमारे बोझ को अन्तिम दिन तक अपनी पीठ पर लेकर ढोते रहे, और दिन आया कि ढेर हो गये ! सो, पारसाल से मैंने उसकी पेंशन कर दी है । सोचता हूँ, इन्साफ यह था कि दस साल पहले उसे पेंशन दे दी जाती।..." ___"लेकिन क्यों;" मैंने कहा, "सवारी तो आप अब भी उस पर कर लेते हैं।" ___ ओवरसियर-साहब ने धीमे से कहा, "हाँ, कर लेता हूँ। बच्चे अपने माँ-बाप पर सवारी नहीं कर लिया करते ?" ___ कहकर उन्होंने ऊपर आँख उठा कर मेरी ओर देखा। उस निगाह की वेदना मानो मेरे भीतर तक गई। जिरह में और प्रश्न करने की बात मेरे जी नहीं आई। __वह कहते रहे, "मैं बिलकुल सवारी न लूँ, तो घोड़ी को दुःख होगा। मैं उसे दुःख नहीं दे सकता । मैं उसके मन की बात समझता हूँ। बीस बरस से हम साथ हैं। इसमें अचरज नहीं है।" - वह घोड़ी के सम्बन्ध में इसी भाँति बहुत-कुछ कहते रहे। मैं सुनता रहा । मैंने सोचा, श्री की घोड़े पर बैठने की इच्छा का अब मुझे क्या बनाना होगा। उनकी बातों में मैं यह समझ रहा था कि उनका इस पशु के साथ सम्बन्ध प्रयोजन और व्यवहार का नहीं है, आत्मीयता का है। उनके सामान और सम्पत्ति का वह अंश नहीं है, उनके मानो परिवार का अंग है। तब मैं सहसा उसके विषय में अपनी गर्ज का प्रदर्शन कैसे कर बैठू ? उन्हीं बातों के सिलसिले में मैंने सुना, वह कह रहे हैं-"मेरे
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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