SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हत्या १६५ दिन होते हैं, और हमारे सम्बन्ध में भी वे कभी थे, अब यह मालूम करके कुछ अचरज, कुछ खेद होता है। अब तो हम बुजुर्ग हैं, और वह सब कुछ अविश्वसनीय तमाशा-सा लगता है । तब, क्या अधेड़ उमर वाले मुझसे सुनकर आपको इसका विश्वास होगा कि जङ्गल का किनारा छूते-छूते हम लोग परस्पर पिता-माता नहीं रहे, पति-पत्नी तक नहीं रहे, जैसे प्रेमी और प्रेमिका बन गये। लेकिन, मैं आपको कहता हूँ, शहर शहर है, जङ्गल जङ्गल है । जङ्गल में वनस्पति है, ओस है, घास है, पानी है, आसमान है, हरियाली है । जङ्गल में क़ानून नहीं है, अदब नहीं है, बाजार नही है, आदमी नहीं है, अफसर नहीं है । तब जङ्गल वह औषध क्यों न हो, जिसे छूकर आदमी में तारुण्य लहरा श्रये, बुढ़ापा भागे, जीवन उमग कर उठे, और आदमी पशु की भाँति पशु और देवता की नाई देवता बन जाय ? मुझे अचरज का अवसर नहीं आया, जब मैंने देखा कि मैं मुग्ध और मूर्ख किशोर बना पत्नी के प्रति रह-रहकर सलज्ज और रह-रहकर निर्लज्ज होने लगा, और पत्नी भी अनजान किशोरी की भाँति व्यवहार करने लगीं । हम जङ्गल में घास पर बैठे थे। श्री ने कहा, "हम बन्दूक चलाना सीखेंगे ।” बात यह थी कि पहले रोज मित्र के यहाँ बम्बई से नई बन्दूक आई थी । मैंने कहा, " बन्दूक !" बोलीं, “हम तो सीखेंगे ।" मैंने कहा, "अच्छी बात है । जरूर सीखोगी ।" बोली, "हम घोड़े पर चढ़ेंगे ।"
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy