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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] आज्ञा दे, मैं सब-कुछ छोड़ दूंगा। तेरी राह में क्या मैंने सम्पदा नहीं छोड़ी ? स्त्री नहीं छोड़ी ? पुत्र-कलत्र नहीं छोड़े ? घर-बार सब-कुछ नहीं छोड़ा ? सब जिसके लिए छोड़ा, उसे नहीं छोड़ेगा और तू भी मुझे नहीं छोड़ सकेगा। बस कह भर दे, बता भर दे कि तेरे सिवा अभी कुछ और भी मेरे साथ लगा है। सच मान, मैं उसे छोड़ने में देर नहीं लगाऊँगा । फिर क्या मैं समझता नहीं कि जिसे मैं छोड़ना कहता हूँ वह छोड़ना नहीं, पाना है।...क्यों मैंने कुछ छोड़ा ? धन क्यों छोड़ा ? क्या इसीलिए नहीं कि जब मैं उसे अपना समझता था, तब और भी अपना समझना और बना लेना चाहते थे और इस तरह मुझ में लोभ, दर्प और दम्भ पैदा होते थे। और औरों में लालच, चोरी, झूठ और छल पैदा होते थे। उससे लोगों में तेरी नहीं, तुझ से विमुख प्रवृत्ति होती थी। तुझ से हट कर मेरी उस पर आँख रहती थी, और तेरे पुत्रों और अपने भाइयों को विशुद्ध प्रेम से मैं नहीं देख सकता था;-या सन्देह और भय से उन्हें देखता था, या कृपा और अनुग्रह के साथ। औरों की आँख तुझ से विमुख होकर उस पर गड़ी रहती थी; और वे मुझे अपने भाई को या तो भय, आशङ्का और खुशामद से, नहीं तो द्वेष, ईर्ष्या और प्रवंचकता से ही देख सकते थे । उस अवस्था में उससे और मुझ से, मुझे और औरों को भी पाप की प्रेरणा मिलती थी । स्त्री क्यों छोड़ी, और सब-कुछ क्यों छोड़ा ? क्या इसीलिए नहीं कि मैं अशुभ प्रवृत्तियों और उद्वेगों का कारण और केन्द्र होने से बच जाऊँ ? कुछ से अपनेपन का मोहमिश्रित प्यार और शेष से द्वेष करने की लाचारी से छूट जाऊँ ? अशेषतः तुझ में हो जाऊँ ? लेकिन मालिक मेरे, आज यह क्या होता है ? सब-कुछ छोड़ बैठा हूँ, फिर भी पहले घर में जिसमें भीख माँगने पहुँचता हूँ, द्वेष, क्रोध और कलह मचने का कारण बनता हूँ। वह छोड़ना पर्याप्त नहीं; शायद उस तरह का छोड़ना जरूरी भी