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________________ साधु की हठ न हो; लेकिन बता क्या करूँ ? तेरे बताने के ही आसरे हूँ, तुझे छोड़ और कहाँ जाऊँगा ?... उस गन्दगी को, उस माया को, उस मोह को और विद्या को उँगली रखकर बतला दे, जो मुझ में छिपी बैठी है । जहाँ तेरा प्रकाश अभी नहीं फैला है । जहाँ अँधेरा है ।... मैं क्या करूँ, जिससे वह व्यक्ति उस क्रोध के परिणाम से धुल जाय, जो मेरे कारण उसमें पैदा हुआ है ? उस बेचारे का अपराध नहीं । त्रुटि मुझ में ही है, जिससे वह अपराध उससे सम्भव हुआ । उसे पश्चात्ताप होगा, उसे क्षोभ होगा, उसे ख्याल होगा कि उसने व्यर्थ अपनी पत्नी को पीटा - उसकी आत्मा पर एक भारी बोझ सा रहेगा । वह बोझ उस पर क्यों रहे? क्या करूँ कि उसकी आत्मा पर से यह बोझ उठ जाय; क्यों मैने ही वह बोझ वहाँ रखा है। अपनी त्रुटि के परिणाम को मिटा देना होगा; उसकी आत्मा को आत्म-पीड़न और श्रात्म-त्रास के भार से हल्का कर देना होगा, पर मालिक मेरे, बता उसके लिए क्या करना होगा ?... मैं तुझसे ही पूछूंगा ।... मैं तुझ से सब कुछ पूछूंगा । तू सब कुछ करता है और सब अच्छा करता है । यह तो ठीक है कि मैं पीटा गया । जिस गुस्से को मैंने जगाया, वह मुझे झेलना और मुझ पर ही फूटना चाहिए था । अगर मैं गुस्सा पैदा कर सकता हूँ, उस गुस्से की मार भी जरूर मुझ पर पड़नी चाहिए; लेकिन उस माता को क्यों तू पिटने दे सका ? क्या मैं भूलूँ उस दृश्य को ? हृदय की सहानुभूति उसका अपराध था; किन्तु यह औरों के सुख-दुखों को अपना अनुभव करने की क्षमता की एक सम्पदा ही तो तूने मानवी हृदय को दी है, वही उस माता के लिए विपदा बन गई !... यह क्या हुआ ? यह क्यों हुआ ? मैं भूले नहीं भूलूँगा - उस माँ की वह मूर्ति, जब मार खाते-खाते भी मुझे ही बचाने की सोच रही थीं। कठिन उपसर्ग में भी जो तेरे मार्ग पर अड़ी रहीं । जिन्होंने तेरी सम्पदा की रक्षा की। जिन्होंने उसे क्रोध w
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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