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________________ साधु की हठ व्यक्तित्व को कहाँ ले जाऊँ, जिसे समक्ष पाकर लोगों को गुस्सा उठता है ? क्या करूँ ? ओह भगवन् , क्या करूँ ?... बैठे-बैठे साधु की आखें मिच गई, और उनमें से आँसू श्रा ढरके। "ओह प्रभु, क्या मैंने नहीं चाहा कि वह सब-कुछ मुझ में से मिट जाय, जो तेरा नहीं है ? क्या अपने को तुझे सौंप-कर तुझ से नहीं प्रार्थना की, कि मुझ में, मेरे रोम-रोम में, मेरे अणु-अणु में, तू ऐसा रम बैठ कि किसी और भाव को कहीं स्थान ही न रहे ? तू मुझे अपना स्वीकार कर ले । क्या मैंने तुझे रोकर अपनी आत्मा के अर्ध्य की अंजलि को तेरी स्वीकृति के समक्ष लिये बैठकर, तुझे सौ-सौ बार, हर-हर बार, विश्वास नहीं दिलाया कि समिधा की भाँति यज्ञ के हुताशन में भस्म होकर भी मैं तुझ में ही पहुँचना चाहता हूँ ? ओह, मैं क्या करूँ, बता ? तू हो आश्रय है। तुझसे ही प्रार्थना करना मैं जानता हूँ। सब-कुछ खोकर मैंने बड़े यत्न से यह प्रार्थना सीखी है। अब तो मेरे लिए तेरी यह प्रार्थना ही सब-कुछ है । यही प्रेम है, यही श्रेय है, यही ज्ञान है । यही मेरी साधना है, और यही मेरी साधना का साध्य है । प्रभु, भगवन, मैं ऐसा नहीं रहना चाहता । मैं बिलकुल तेरा हो रहना चाहता हूँ। मेरे,रोम-रोम से हरेक तुझे ही प्राप्त करे, तेरी ही स्फूर्ति पाये; किसी को मुझ से क्रोध की प्रेरणा न मिल सके । मेरी यह प्रार्थना क्या तू नहीं सुनता, मेरे मालिक ? मेरे व्यक्तित्व को चीर-चीर करके, कतर-कतर करके, वह अंश देख ले और मुझे दिखला दे, जो तेरे अनुकूल अभी नहीं हो पाया है । मैं उसे दण्डित करूँगा, अनुशासित करूँगा । आज्ञा दे, मैं उसे भस्म कर दूंगा ।... मैं शपथ करता हूँ, मैं तेरे समीपं स्वीकृत होकर रहूँगा, तेरे दर्शन करके ही छोड्गा , सम्पूर्ण रूप से मुझे अपना बना लिये बगैर मैं तुझे छुट्टी नहीं लेने दूंगा।....मुझे
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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