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________________ जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] लेकिन क्रोध का तर्क और है । वह तर्क प्रतयं है । जिसे बदमाश मान लिया गया, उसे 'बेचारा' कहना उस क्रोध को और क्रुद्ध करना नहीं तो और क्या है ? उसी तरह कोप-पात्र को सहानुभूति देना, आग के शिकार में और घी डालना है । बोले, "तुझ से कौन पूछता है, बदजात ?-और साधु पर कुछ थप्पड़ और दुहत्थड़ जहाँ पड़े, जमा दिये और उसे धकियाते हुए द्वार की राह दिखाने का प्रयत्न किया।" किन्तु साधु ने बाहर चले जाने की आतुरता नहीं प्रदर्शित की और न प्रहारों के प्रति कुछ असहनीयता। इससे दारोगा का गुस्सा एक साथ ही कुण्ठित हुआ और तीखा हो गया। इसी बीच, ढिठाई देखो, वह महिला अन्तःपुर की परिधि और पाबन्दी तोड़ बाहर आ गई। क्रोधासुर दारोगा के हाथों को वनशक्ति प्रदान कर उनके प्रहार-द्वारा साधु की शान्ति और साधु के मुख को चूर कर देने को ही था कि महिला ने दारोगा के हाथों को पकड़ लिया । इस तरह उनकी उन्नति और उनकी इच्छा में यह आकस्मिक और अवैध व्यवधान पड़ गया। __ महिला कह रही थीं, “छिः ! छिः ! यह न करो । बहुत मार लिया । अब यह चला जायगा ।...जा, भाई जा,...अरे, जा न । ...छोड़ो-छोड़ो, क्या इसपर हाथ छोड़ते हो ? ये इसके लायक भी तो नहीं, नाचीज़ ।...आओ, आओ।...जारे, हट, भाग जा..." लेकिन यह सब कह न पाने का अवकाश उन्हें नहीं दिया गया। क्रोध के पूर्ण स्वराज्य में बातें करने, सुनने-समझने की इतनी फुर्सत नहीं रहती। उन्होंने एक झटके से हाथ छुड़ाया, उस हाथ से महिला के केशों को पकड़ा और पैरों को प्रहार करने के लिए स्वतन्त्र कर दिया । साथ ही मुख से वह अनर्गल और अश्लील वाक्-प्रवाह जारी किया, जिसका परिचय पाने की आपको इच्छा नहीं होगी
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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