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साधु की हठ रही हो, आखिर भीख तुम दोगे ही। तो दारोगा की मर्जी जैसे अपने बारे में भी नहीं चलेगी ! जोर से कहा, "बदमाश !...बाहर निकल ।" और दाहने हाथ से वह बाहर निकलने का मार्ग दिखला दिया और सम्पूर्ण मुद्रा से यह जतला दिया कि ऐसा न करने का परिणाम अच्छा न होगा। ___ साधु ने, मानो मुस्कराहट को वाणी में घोल कर कहा, "भाई, गुस्सा बुरा होता है। फ़क़ीर को जरा भीख डाल दो। उसका भी भला होगा, और तुम्हारा भी।"
लेकिन दारोगा की जो मनःस्थिति थी उसमें साधु की प्रकृत ठंडक चिंगारी-सी जाकर लगी, उनका गुस्सा, जो अभी तक धूम्रावृत अग्नि की भाँति केवल भभक रहा था, अब भड़क कर ज्वालामय हो गया। आगे बढ़ आये और बोले, "भीख लेगा भीख ?ले!" और एक जोर का चपत साधु की कनपटी पर जड़ दिया । "और लेगा ?-ले और ।" दो एक और लगा दिये।
कौन कहे कि दारोगा तब नहीं समझ रहे थे कि वह बदमाश के साथ सिर्फ इन्साफ़ का सलूक कर रहे हैं, लेकिन क्रोधोन्मत्त का न्याय क्रोधशून्य के लिए सदा जबरदस्त और स्पष्ट अन्याय ही है। मूर्छाग्रस्त और प्रमत्त व्यक्ति के लिए, इसलिए दया और क्षमा ही प्रकृत न्याय है।
दारोगा की धर्म-पत्नी चिक के पीछे से यह देख रही थी और उन्हें पति का यह कार्य बड़ा बुरा लग रहा था। साधु की तरफ उन का मन खिंचा था या न खिंचा था; किन्तु पति के दुर्व्यवहार पर यह एक दम साधु का पक्ष लेने को इतनी उद्यत और विवश हो गई कि मुसलिम गृहस्थी में पत्नी की पाबन्दियाँ कहाँ तक हैं इसका ध्यान, पीढ़ियों से पड़ी हुई अपनी आदत के विपरीत, शिथिल हो गया। भीतर से ही उन्होंने कहा, "हे-हें ! उसे मारते क्यों हो ? भूल हो गई बेचारे से, जाने दो।"