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________________ साधु की हठ और मुझे भी साहस नहीं है। किन्तु उससे यह बहुत अंश तक सिद्ध होता था कि पत्नी के ऊपर जो सम्पूर्ण स्वत्वाधिकार धर्म और कानून की सहायता से उन्होंने पाया है, उसको वह अक्षुण्ण बनाये रक्खेंगे, चाहे ऐसी-ऐसी दस जूतियों को बदलना और फेंकना क्यों न पड़े, और चाहे उन्हें खुद ही क्यों न मरना पड़े, और यदि वह अपनी वफादारी सम्पूर्ण, सुरक्षित और उन दारोगा की भक्ति में सर्वतः संचित नहीं रक्खेगी, तो उसकी बोटी-बोटी का पता न चलेगा और साधु के प्रति उस कम्बख्त के जो भाव हैं, उन्हें वह खूब जानते हैं और सदा याद रक्खेंगे और उनका मजा और परिणाम वह उचित रूप में उस कम्बख्त को देते रहेगे। मार जबरदस्त पड़ी। साधु अविचल खड़ा देख रहा था कि जो मार कदाचित् भाग्य ने उसके लिए भेजी थी, जो उसके हिस्से की थी, यह महिला बीच ही में अन्तःपुर से आकर उसे अपने ऊपर ले लेती है। मानो यह भी उस विपद-हरण संकट-मोचन परमेश्वर के अनुरूप है, जिन्होंने जगत् को जहर से बचाने के लिए उसे कण्ठ में धारण कर लिया । उस माँ के प्रति साधु के हृदय में दया क्या उठती, भक्ति उठी। वह बिना हिले-डुले, निष्काम, क्रोध के पंजे में आबद्ध अवश कोमलता के इस दृश्य को देखता रहा। किन्तु महिला को इसकी चिन्ता थी। उन्हें खटका था कि कहीं पति फिर साधु की ओर मुड़ पड़ें और उस बेचारे को ख्वामख्वाह और न मारें; इसलिए पिटते-पिटते कई बार उन्होंने सख्त शब्दों में साधु से भाग जाने का अनुरोध किया । ___ साधु इस पर तुरन्त न चला गया। हाँ, इन अनुरोधों का परिणाम यह अवश्य हुआ कि पतिदेव के कोपानल को और-और आहुति मिली और महिला पर और-और तीखी मार पड़ी। अन्त में महिला ने चिल्लाकर कहा, "और कितना पिटवाएगा, मरवा ही डालेगा क्या, कम्बख्त ? चला क्यों नहीं जाता, जो मैं बच जाऊँ।"
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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