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________________ १.३८ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] किरपा हमारी हाजरी में है, हुक्के को ठीक-ठाक करते रहने और कराते-रहने का ध्यान रख रहा है और यत्न कर रहा है कि हम लोग उसे अपना दास मान लेने में संकोच न करें, और उसके साथ बेखटके उसी तरह का व्यवहार करें। वह शेष दोनों सज्जनों का धन्यवाद हाथ जोड़कर साभार स्वीकार करता है, आतिथ्य की त्रुटियों के लिए लज्जित और क्षमा-प्रार्थी है। ठीक तरह से बोल भी नहीं सकता; क्योंकि अपनी हीनता और त्रुटियों से अवगत है, और नमस्कार करके और कुछ पग साथ चलकर उनको विदा देता है। किन्तु हमको विदा वह नहीं दे सकेगा। 'पिताजी आयेंगे, तभी हम लोग जाने की इच्छा और कृपा करें, और उसे केवल सेवक मानें'-यह भाव कुछ टूटे-से शब्दों में प्रकट करके और कुछ अपनी मुद्रा में लिए रह कर, वह हमारी उपस्थिति में बड़े संकोच और साहस का सहारा लेकर उपस्थित है। मेरे मित्र जमींदार हैं, मैं भी कदाचित् उनकी निगाह में सम्माननीय अतिथि हूँ, और जगतराम हम लोगों के साथ कुछ रास्ता चले बिना हमें विदा न दे सकेंगे। 'उनका बड़ा सौभाग्य है, और हम उन पर कृपा रखेंगे और समय-समय पर कभी उनके स्थान पर पधार कर उन्हें आनन्दित और धन्य होने का अवसर देने का कष्ट उठाने का अनुग्रह करेंगे'-यह निवेदन भी किरपा, जैसे-तैसे हम पर प्रकट कर देता है। ___ जहाँ की हवा सभ्यता से घुटी रहती है, और जहाँ का शिष्टाचार अदब-कायदों में इतना पाबन्द रहता है कि मन से उसका सम्बन्ध असम्भव हो उठे, उस शहर से टूटकर, मुझे लगा, मेरा सौभाग्य है कि, मैं यहाँ की स्वच्छ प्रकृति और मुक्त वायु में आ सका और इस सहज विनम्रता के दर्शन कर सका, जिसे कर्तव्य और सभ्यता की गन्ध भी नहीं लग पाई है। और जो श्राप ही
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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