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________________ प्राम का पेड़ १३७ मिलने पर किसी की बेटी को दुःख में डालने का काम नहीं करेंगे। अब तो हम किसी की बुराई में नहीं रहेंगे। हमारा कुछ रहा क्या है, जो किसी के बुरे बनने और बुरे करने की बात आये। सब हमारे और हम सबके और हमारा कुछ नहीं; क्योंकि हम तो अब रामजी के हो गये, वहीं हमें जाना है।..." आदि। जगतराम के सम्बन्ध में इसी प्रकार की और जानकारी पाते रहना मुझे भारी हो रहा था। मन पर जैसे बोझ लदा जाता हो । यह दृश्य क्या सुखकर है कि मौत को आगे रखकर एक आदमी उसके मुंह में झुकने के लिये मामूली ढंग से अपने कदम बढ़ाता हुश्रा जा रहा है ? मौत की जगह मौत का ख्याल ही सही, लेकिन क्या इससे दृश्य कुछ अधिक सुखकर हो जाता है ? किन्तु वृद्ध के भीतर से जगतराम के नाम पर ऐसी गहरी सहानुभूति की भाव-धारा फूट पड़ती है कि शब्दों के अनन्त अपव्यय से भी वह खर्च नहीं हो सकती, यह मैंने जान लिया। और इसलिए, जिस-तिस तरह जपनी मुद्रा से यह प्रकट हो जाने दिया कि जगतराम के बारे में इतनी ही जानकारी को लेकर मैं कहीं अकेला आँख मूंद कर जा पड़ने का अवसर चाहता हूँ। मेरा यह इंगित खोया न गया, और मैं छुट्टी पाकर, एक ओर एक खाट पर लेट गया, और सोचते-सोचते सो गयां।" "शाम होने आई और अब हम जाएँगे । अभ्यागतों में से अधिकतर गाँव के ही थे, वे अपने घर चले गये हैं। जो और आस-पास के गाँवों के थे, वे भी चले गये हैं। एक-दो और, और मैं और मेरे मित्र, बस इतने जने रहे हैं। हम आतिथ्य के लिये आभारी हैं, गृहस्वामी को धन्यवाद देकर और उनकी आज्ञा लेकर अब हम लोग जाने की प्रतीक्षा में हैं।
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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