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जनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग]
लेकिन मुझे कुछ भी हाथ नहीं आया, और वह विविध विषयों पर आध्यात्मिक चर्चा चलाकर, कुछ सन्तुष्ट और कुछ विषण्ण, लौट कर चला गया।
उसके बाद एक रोज अँगरेजी बाजार के बीच से पैदल जा रहा था कि क्या देखता हूँ, दौड़कर लालचन्द ने मुझे पकड़ लिया और कह रहा है, "स्वामीजी, आइए, पधारिये।"
इस समय लालचन्द का मुख वैसा कर्त्तव्य-शून्य नहीं है, और उस पर कुछ प्रफुल्लता भी दिखाई देती है । मैंने कहा, "कहो भाई, कहाँ ले चलोगे ?" ___ उसने पास ही एक बहुत बड़ी और शानदार दूकान की तरफ दिखाकर बताया कि वह 'ईस्ट इंपोरियम' उसी की निज की दूकान है। मुझे प्रसन्नता हुई; लेकिन मेरे मन में जरा खटका भी हुआ कि इस आदमी में यह कारबारीपन का लक्षण नहीं है कि अब तक मुझ-जैसे स्वामी आदमी की उसे चिन्ता है। वह मुझे दूकान में ले गया और अभ्यर्थना-पूर्वक अपने इस उद्यम के हालचाल सुनाने लगा। उस समय भी मैने उसमें वह पुरानी प्रकृति जागृत देखी । देखा, पाप से भय और पुण्य की चिन्ता उसमें लगी ही रहती है, और वह कुछ आध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप करने की आवश्यकता में उलझा ही है।
अगले दिन मानिकचन्द मेरे स्थान पर मुझ से मिलने आये और मुझे धन्यवाद देने लगे कि लालचन्द अलग दूकान लेकर बैठ गया है । उन्होंने बताया कि एक हजार रुपये माहवार का भी नुकसान हो, तो भी हर्ज नहीं है, लेकिन लड़का तो सम्भलने पर आया है । उन्होंने बताया कि सचमुच लालचन्द खूष परिश्रम-पूर्वक काम करता है, व्यवसाय के मामले में खूब चौकस है। और यह,