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यही सना बना लो से दूकान लेकर भूलने का यत्न विमुख होकर
कः पन्था
१२३ तथा रखना होता है। जब व्यक्ति श्रात्मस्थ हुआ, तब जीवन के समस्त संगृहीत उपादान स्वयमेव परिग्रह होने लगते हैं। और, तब वह अपने को जगत् की सदभिलाषा पर छोड़ देता है। स्वयं भी अपने लिए नहीं रहता-विश्व के लिए रहता है। तुम पाप-पुण्य की बात करते हो, अतः मैं तुम से कहता हूँ कि इस समय कोई धन्धा लेकर बैठना तुम्हारा परम धर्म है। कर्म से विमुख होकर मन्दिर में उपासना करने में अपने को भूलने का यत्न करना अधमे है। स्वाधीन भाव से दूकान लेकर व्यवसाय करो, और उसी को उपासना बना लो। व्यवसाय में भी तुम प्रामाणिकता न तजो, यही सब-कुछ है।" ___मैंने इसी भाँति उससे कुछ और भी बातें कीं। मैंने देखा, कुछ उसमें अटक है । जो कुछ भीतर अटका है, उसे वह चाहकर भी बाहर नहीं ला पाता । 'स्त्री' शब्द भूलकर भी उसकी बातों के आस-पास मैं नहीं पाता। मैं देखता हूँ, वह जवान है। तीसबत्तीस वर्ष से अधिक उसकी उम्र कभी नहीं हो सकती। उसकी चर्चा में स्त्री-तत्त्व की गन्ध तक के अभाव के प्रति ही मुझे शंका होती है । मैं अपेक्षा रखता हूँ कि वह कभी घर-परिवार आदि की भी बातें मुझ से करे। मेरी समझ में नहीं आता, स्त्री-प्रेम की. बातें उससे क्यों एकदम दूर होनी चाहिएँ। ___ मैंने कहा, "लालचन्द, तुम मुझे अपना समझ लो । जब जो चाहे मुझ से कह सकते हो।"
मैंने देखा, अब भी उसमें चर्चा चलाने की चाह है कि जीवन का मोक्ष क्या है ? ___ जीवन का मोक्ष क्या है, यह मैं बेचारा भी क्या जानता हूँ। लेकिन लालचन्द को सामने लेकर उस मोक्ष से कहीं अधिक मैं यह जानना चाहता हूँ कि लालचन्द इस मोक्ष-चिन्तन के पीछे किस ठोकर से उलट कर पड़ा है।