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________________ ११८ जनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] वही उज्ज्वल खहर का लिबास होता । चिन्तित मुस्कराहट से मुस्कराता वही मुख और हल्की समीर की भाँति तरल शिष्ट व्यवहार । मैंने देखा, विनय-नम्र, संकोच के कारण बातचीत में कहींकहीं वह अब हकला उठता है । वाक्यों की स्वच्छन्दता और प्रवाह में जैसे कुछ धीमापन आ गया है। शब्दों में सूक्ष्मता और निर्बलता आ गई है । शब्दों के पीछे संकल्प-शक्ति मानो धीमी होती जा रही है-मन की शंका गहरी उतरती और फैलतो जाती है। मैंने कहा, "कहो लालचन्द, अच्छे तो हो ? उसने नमित मुस्कान के साथ कहा, "आपकी कृपा से मैं प्रसन्न हूँ।" मैंने मालूम किया कि पिछले दिनों अपनी जवाहरात की दुकान पर जाना उसने बहुत कम कर दिया है। अपने मत के मन्तव्यों में पिछले दिनों उसने धार्मिक श्रद्धा प्राप्त की है। व्रतउपवास करता है, दर्शन-पूजा करता है और यति-मुनियों की सङ्गति-सेवा करता है। अपने धर्म के शास्त्र बाँचना उसने शुरू किया है। वह अपने को दुनियादारी से खींचकर जैसे संक्षिप्त बनाना चाह रहा है। __ मैंने पूछा, "कहो भाई, तुम्हारे क्लब के और सब लोग कुशलपर्वक तो हैं ?" उसने कहा, "जहाँ तक मुझे ज्ञात है, सब आनन्द-पूर्वक हैं। ___मैंने पूछा, "क्यों क्या आजकल उन लोगों से मिलना नहीं होता ?" ___ उसने कहा, "उस क्लब से मेरा अब सम्बन्ध नहीं रहा।" मैंने आश्चर्य प्रकट किया, और जानना चाहा कि ऐसी क्या बात हुई है। मालूम हुआ, बात कोई विशेष नहीं हुई है। करोड़पति का पुत्र है; इसीलिए तो वह क्लब का सदस्य था । निर्धन का पुत्र होने
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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