SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कः पन्था ११७ परम पिता का प्रयोजन है; किन्तु अति दीन, अति क्षुद्र मानव उससे अपने को बॉध लेता है । मेरे भाई, इंजील का कथन मनुष्य की इसी क्षुद्रता के कारण है ।" लालचन्द के समक्ष जैसे लालच का द्वार खुला; किन्तु वह उसे बन्द ही रखना चाहता है। उसने आविष्ट स्वर में कहा, “तो स्वर्ग का राज्य धनिक को अप्राप्य नहीं है ?" मैंने कहा, "जिस प्रकार धनिक को यह अप्राप्य नहीं है कि वह अपने को परम पिता का भिखारी और मनुष्य का सेवक समझे, उसी प्रकार उसे स्वर्ग और शान्ति भी अप्राप्य नहीं है । " लालचन्द ने पूछा, "तो मैं यह मोटर रखे रह सकता हूँ ?” मैंने कहा, "दे भी डाल सकते हो, और रखे भी रह सकते हो । देकर भी स्वर्ग तुम्हें अप्राप्य हो सकता है, और उसे रख कर भी तुम स्वर्ग को प्राप्त पा सकते हो। मेरे बच्चे, तुम को क्या क्लेश है ?" मेरा स्थान पास आ गया था । लालचन्द ने कहा, "क्या मैं कभी आपकी सेवा में आऊँ, तो आपका बहुत हर्ज होगा ?" मैंने कहा, "नहीं-नहीं, मुझे बहुत खुशी होगी ।" वह मेरे घर के दरवाजे तक मुझे पहुँचाने आया। उसने मुझे प्रणाम किया । बहुत धीमे-धीमे, मानो बोलने में उसे कष्ट होता हो, उसने कहा, "मैं आपका बहुत ऋणी हूँ; लेकिन मैं आपका बालक हूँ ।” मैंने कहा, "मैं तुम्हें जानकर बहुत प्रसन्न हुआ ।” अन्त में वह भक्ति पूर्वक मुझे प्रणाम कर चला गया । उसके बाद लालचन्द मुझे कहाँ मिला ? हाँ, एक-आध पार्टी में, जहाँ मैं विवशतः ले जाया गया था, वह दिखाई दिया । सदा
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy